+ सत्याणुव्रत के अतिचार -
परिवाद-रहोभ्याख्या-पैशून्यं कूटलेखकरणं च
न्यासापहारितापि च, व्यतिक्रमा: पञ्च सत्यस्य ॥56॥
अन्वयार्थ : [परिवाद] झूठा उपदेश देना, [रहोभ्याख्या] अन्यों की एकांत की गुप्त क्रियाओं को प्रगट करना, [पैशुन्य] पर की चुगली निन्दा करना, [कूटलेखकरण] झूठे लेख दस्तावेज आदि लिखना और [न्यासापहार] यदि कोई धरोहर की संख्या को भूल जावे तो उसे उतनी ही कहकर बाकी हड़प लेना, सत्याणुव्रत के ये [पञ्च] पांच [व्यतिक्रम] अतिचार हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

अकृशचौर्यात् स्थूलचौर्यात् । उपारमणं तत् । यत् न हरति न गृह्णाति । किं तत् ? परत्वं परद्रव्यम् । कथम्भूतम् ? निहितं वा धृतम् । तथा पतितं वा । तथा सुविस्मृतं वा अतिशयेन विस्मृतम् । वा शब्द: सर्वत्र परस्परसमुच्चये । इत्थम्भूतं परस्वम् अविसृष्टम् अदत्तं यत्स्वयं न हरति न दत्तेऽन्यस्मै तदकृशचौर्यादुपारमणं प्रतिपत्तव्यम् ॥
आदिमति :


  • परिवाद का अर्थ मिथ्योपदेश है अर्थात् अभ्युदय और मोक्ष की प्रयोजनभूत क्रियाओं में दूसरे को अन्यथा प्रवृत्ति कराना परिवाद या मिथ्योपदेश है ।
  • स्त्री-पुरुषों की एकान्त में की हुई विशिष्ट क्रिया को प्रकट करना रहोभ्याख्यान है ।
  • अंगविकार तथा भौंहों का चलाना आदि के द्वारा दूसरे के अभिप्राय को जानकर इर्षावश उसे प्रकट करना पैशुन्य है । इसे साकारमन्त्रभेद कहते हैं ।
  • दूसरे के द्वारा अनुक्त अथवा अकृत किसी कार्य के विषय में ऐसे कहना कि यह उसने कहा है या किया है, इस प्रकार धोखा देने के अभिप्राय से कपटपूर्ण लेख लिखना कूटलेखकरण है ।
  • तथा धरोहर रखनेवाला व्यक्ति यदि अपनी वस्तु की संख्या को भूलकर अल्पसंख्या में ही वस्तु को मांग रहा है तो कह देना हाँ, इतनी ही तुम्हारी वस्तु है, ले लो, इसे न्यासापहारिता कहते हैं ।
इस प्रकार परिवादादिक चार और न्यासापहार मिलकर सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार होते हैं ।