+ पंचाणु व्रत का फल -
पञ्चाणुव्रतनिधयो, निरतिक्रमणा: फलन्ति सुरलोकम्
यत्रावधिरष्टगुणा, दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ॥63॥
अन्वयार्थ : [निरतिक्रमणाः] अतिचार रहित [पंञ्च] पांच [अणुव्रतनिधयः] अणुव्रत रूपी निधियां [तं सुरलोकं फलन्ति] उसे स्वर्ग-लोक का फल देती है [च] और [यत्रावधिरष्टगुणा] जिसमे अवधि ज्ञान अणिमा-महिम आदि ८ गुण [च दिव्य शरीरं] और ७ धातुओं से रहित वैक्रियिक-शरीर [लभ्यन्ते] प्राप्त होता है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

[[फलन्ति]] फलं प्रयच्छन्ति । के ते ? [[पञ्चाणुव्रतनिधय:]] पञ्चाणुव्रतान्येव निधयो निधानानि । कथम्भूतानि ? [[निरतिक्रमणा]] निरतिचारा: । किं फलन्ति ? [[सुरलोकम्]] । यत्र सुरलोके [[लभ्यन्ते]] । कानि ? [[अवधिरवधिज्ञानं]] । [[अष्टुणा]] अणिमामहिमेत्यादय: । [[दिव्यशरीरं च]] सप्तधातुविवर्जितं शरीरम् । एतानि सर्वाणि यत्र लभ्यन्ते ॥
आदिमति :

निरतिचार पंच अणुव्रत निधियों के समान हैं । इस प्रकार जो इनका अतिचार रहित परिपालन करता है, वह नियम से स्वर्ग जाता है । स्वर्ग में भवप्रत्यय अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है और अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं तथा सप्तधातु से रहित दिव्य वैक्रियिक शरीर प्राप्त होता है ।