प्रभाचन्द्राचार्य :
तथा तेषां तत्परिणतावपरमपि हेतुमाह -- चरणमोहपरिणामा: भावरूपाश्चारित्रमोहपरिणतय: । कल्प्यन्ते उपचर्यन्ते । किमर्थम् ? महाव्रतनिमित्तम् । कथम्भूता: सन्त: ? सत्त्वेन दुरवधारा अस्तित्वेन महता कष्टेनावधार्यमाणा: सन्तोऽपि तेऽस्तित्वेन लक्षयितुं न शक्यन्त इत्यर्थ: । कुतस्ते दुरवधारा: ? मन्ददरा अतिशयेनानुत्कटा: । मन्दतरत्वमप्येषां कुत: ? प्रत्याख्यानतनुत्वात् प्रत्याख्यानशब्देन हि प्रत्याख्यानावरणा: द्रव्यक्रोधमानमायालोभा गृह्यन्ते । नामैकदेशे हि प्रवृत्ता: शब्दा नाम्न्यपि वर्तन्ते भीमादिवत् । प्रत्याख्यानं हि सविकल्पेन हिंसादिविरतिलक्षण: संयमस्तदावृण्वन्ति ये ते प्रत्याख्यानावरणा द्रव्यक्रोधादय:, यदुदये ह्यात्मा कात्स्न्र्यात्तद्विरतिं कर्तुं न शक्नोति, अतो द्रव्यरूपाणां क्रोधादीनां तदुत्वान्मन्दोदयत्वाद्भावरूपाणामेषां मन्दतरत्वं सिद्धम् ॥७१॥ |
आदिमति :
चरणमोहपरिणाम अर्थात् भावरूप जो चारित्रमोह परिणति है, जो महाव्रत के लिए कल्पित की गयी है । यहाँ पर प्रत्याख्यान शब्द से प्रत्याख्यानावरण द्रव्य क्रोध, मान, माया, लोभ का ग्रहण होता है, क्योंकि नाम के एकदेश से सर्वदेश का ग्रहण होता है । जिस प्रकार ‘भीम’ पद से भीमसेन का बोध होता है, उसी प्रकार प्रत्याख्यान शब्द का अर्थ सविकल्पपूर्वक हिंसादि पापों का त्यागरूप संयम होता है । उस संयम को जो आवृत करे अर्थात् जिसके उदय से यह जीव हिंसादि पापों का पूर्ण रूप से त्याग करने में समर्थ नहीं हो पाता है, वे प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं । यह कषाय द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की है, पौद्गलिक कर्मप्रकृति द्रव्यकषाय है और उसके उदय से होने वाले परिणाम भावकषाय हैं । जब गृहस्थ के इन द्रव्यरूप क्रोधादि का इतना मन्द उदय हो जाता है कि चारित्रमोह के परिणाम का अस्तित्व भी बड़ी कठिनता से समझा जाता है, तब उसके उपचार से महाव्रत जैसी अवस्था हो जाती है । दिग्व्रतधारी के मर्यादा के बाहर क्षेत्र में स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के हिंसादि पापों की पूर्णरूप से निवृत्ति हो जाती है । इसलिए उसके अणुव्रत भी उपचार से महाव्रत सरीखे जान पड़ते हैं, परमार्थ से नहीं । अत: द्रव्य क्रोधादिक का मन्दोदय होने से भावक्रोधादि का भी मन्दतरत्व सिद्ध होता है । |