+ अपध्यान अनर्थदण्ड -
वधबन्धच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः
आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदा: ॥78॥
अन्वयार्थ : [जिनशासने विशदा:] जिनागम में निपुण पुरुष [द्र्वेषात्] द्वेष के कारण किसी के [वधबन्धच्छेदादे] नाश होने, बांधे जाने और छेदे जाने आदि का [च] तथा [रागात्] राग के कारण [परकलत्रादे:] परस्त्री आदि का [आध्यानम्] चिन्तन करने को [अपध्यान्म्] अपध्यान नाम का अनर्थ-दण्ड [शासति] कहते हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

इदानीमपध्यानस्वरूपं व्याख्यातुमाह --
अपध्यानं शासति प्रतिपादयन्ति । के ते ? विशदा विचक्षणा: । क्व ? जिनशासने । किं तत् ? आध्यानं चिन्तनम् । कस्य ? वधबन्धच्छेदादे: । कस्मात् ? द्वेषात् । न केवलं द्वेषादपि रागाद्वा ध्यानम् । कस्य ? परकलत्रादे:
आदिमति :

द्वेष के वश किसी के मर जाने, बन्धन प्राप्त होने का अथव अंग-उपांगादि छिद जाने का और राग के कारण परस्त्री आदि का आध्यान बार-बार चिन्तन करना सो अपध्यान नामक अनर्थदण्ड है । ऐसा जिनशासन के ज्ञाता पुरुष कहते हैं ।