
प्रभाचन्द्राचार्य :
साम्प्रतं भोगोपभोगपरिमाणलक्षणं गुणव्रतमाख्यातुमाह -- भोगोपभोगपरिमाणं भवति । किं तत् ? यत्परिसङ्ख्यानं परिगणनम् । केषाम् ? अक्षार्थाना मिन्द्रियविषयाणां कथम्भूतानामपि तेषाम् ? अर्थवतामपि सुखादिलक्षणप्रयोजनसपादकानामपि अथवाऽर्थवतां सग्रन्थामपि श्रावकाणाम् । तेषां परिसङ्ख्यानम् । किमर्थम् ? तनूकृतये कृशतरत्वकरणार्थम् । कासाम् ? रागरतीनां रागेण विषयेषु रागोद्रेकेण रतय: आसक्तयस्तासाम् । कस्मिन् सति ? अवधौ विषयपरिमाणे ॥ |
आदिमति :
परिग्रह परिमाणव्रत में परिग्रह की जो सीमा निर्धारित की थी, उसमें भी इन्द्रिय-विषयों का जो परिसंख्यान / नियम किया जाता है, वह भोगोपभोग परिमाणव्रत है । यहाँ पर टीकाकार ने 'अर्थवतां' का अर्थ ऐसा भी किया है कि अर्थ-परिग्रह रहित मुनि तो सुखादि लक्षणरूप आवश्यक प्रयोजनक वस्तुओं का परिगणन करते ही हैं, किन्तु अर्थवान् गृहस्थ श्रावक भी राग के तीव्र उद्रेक से होने वाली इन्द्रियविषयों में तीव्र आसक्ति को अत्यन्त कृश करने के लिए भोग सामग्री की नियमरूप परिगणना करते हैं। यह भोगोपभोग परिमाण नामक गुणव्रत है । |