
प्रभाचन्द्राचार्य :
अथ देशावकाशिकस्य का मर्यादा इत्याह -- तपोवृद्धाश्चिरन्तनाचार्या गणधरदेवादय: । सीम्नां स्मरन्ति मर्यादा: प्रतिपाद्यन्ते । सीम्रामित्यत्र 'स्मृत्यर्थदयीशां कर्म' इत्यनेन षष्ठी । केषां सोमाभूतानाम् ? गृहहारिग्रामाणां हारि: कटकम् । तथा क्षेत्रनदीदावयोजनानां च दावो वनम् । कस्यैतेषां सीमाभूतानाम् ? देशावकाशिकस्य देशनिवृत्तिव्रतस्य ॥ |
आदिमति :
'तपोभि: वृद्धा: तपोवृद्धा:' इस निरुक्ति के अनुसार तप से वृद्ध चिरकालीन आचार्य गणधर देवादिक का ग्रहण होता है । उन्होंने देशावकाशिकव्रत की सीमा निर्धारित करते हुए घर, छावनी, गाँव, खेत, नदी, वन और योजनों की सीमा रूप से मर्यादित करना कहा है । यहाँ कर्म अर्थ में 'स्मृत्यर्थदयीशां कर्म' इस सूत्र से षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है । इस सूत्र का अर्थ है स्मृत्यर्थक धातुएँ तथा दय और ईश धातु के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है । |