+ देशव्रत में काल मर्यादा -
संवत्सरमृतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च
देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधिं प्राज्ञाः ॥94॥
अन्वयार्थ : [प्राज्ञाः] गणधरदेव / आचार्य [देशावकाशिकस्य] देशावकाशिक-व्रत की [कालावधिं] काल-मर्यादा [संवत्सरम्] एक वर्ष, [अयनम्] छह मास, [ऋतु] दो मास, [मास] एक माह, [चातुर्मास] चार माह, [पक्ष] पंद्रह दिन [च] और [ऋक्षम] एक नक्षत्र को [प्राहु:] कहते हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

एवं द्रव्यावधिं योजनावधिं चास्य प्रतिपाद्य कालावधिं प्रतिपादयन्नाह --
देशावकाशिकस्य कालावधिं कालमर्यादां प्राहु: । के ते ? प्राज्ञा: गणधरदेवादय: । किं तदित्याह संवत्सरमित्यादिॠ- संवत्सरं यावदेतावत्येव देशे मयाऽवस्थातव्यम् । तथा ऋतुमयनं वा यावत् । मासचतुर्मासपक्षं यावत् । ऋक्षं च चन्द्रभुक्त्या आदित्यभुक्त्या वा इदं नक्षत्रं यावत् ॥
आदिमति :

देशावकाशिकव्रत में काल की मर्यादा बतलाते हुए गणधरदेवादिक ने एक वर्ष, एक ऋतु, एक अयन, एक मास, चार मास, एक पक्ष अथवा एक नक्षत्र को काल की अवधि कहा है अर्थात् इस प्रकार देशावकाशिक व्रत में आने-जाने की कालमर्यादा की जाती है, ऐसा कहा है ।