+ समय शब्द की व्युत्पत्ति -
मूर्धरूहमुष्टिवासोबन्धं पर्य्यंकबन्धनं चापि
स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ॥98॥
अन्वयार्थ : [समयज्ञाः] आगम के ज्ञाता पुरुष [मूर्धरूहबन्धं] सर के केश के बंध, [मुष्टिबन्धं] मुष्टि के बंध (fist) और [वासोबन्धं] वस्त्र के बन्ध के काल को [च] और [पर्य्यंकबन्धनं] पालथी बांधने के काल को [वा] अथवा [उपवेशनं] खड़े होने के काल को और [स्थानं] बैठने के काल को [समयं] सामायिक का समय [जानन्ति] जानते हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

आसमयमुक्तीत्यत्र य: समयशब्द: प्रतिपादितस्तदर्थं व्याख्यातुमाह --
समयज्ञा आगमज्ञा: । समयं जानन्ति । किं तत् ? मूर्धरुहमुष्टिवासोबन्धं, बन्धशब्द: प्रत्येकमभिसम्बद्ध्यते मूर्धरुहाणां केशानां बन्धं बन्धकालं समयं जानन्ति । तथा मुष्टिबन्धं वासोबन्धं वस्त्रग्रन्थि पर्यङ्कबन्धनं चापि उपविष्टकायोत्सर्गमपि च स्थानमूध्र्वकायोत्सर्गं उपवेशनं वा सामान्येनोपविष्टावस्थानमपि समयं जानन्ति ॥
आदिमति :

मूर्धरुह, मुष्टि और वासस् इन तीन शब्दों का द्वन्द्व समास हुआ है । यहाँ पर बन्ध शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध होता है । अत: मूर्धरुहबन्ध, मुष्टिबन्ध और वासोबन्ध ये तीन शब्द बने हैं । बन्ध का अर्थ बन्ध का काल है । जैसे -- जब तक चोटी में गांठ लगी है, मुठ्ठी बंधी है, वस्त्र में गांठ लगी है, आसन लगाकर बैठा हूँ, कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा हूँ अथवा पद्मासन से बैठा हूँ, तब तक सामायिक करूंगा । इनमें जो काल लगता है, वह सब सामायिक का काल कहलाता है । तथा इसको सामायिक का काल जानते हैं ।