+ व्रत के दिन सामायिक का उपदेश -
व्यापारवैमनस्याद्विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्त्या
सामायिकं बध्नीयादुपवासे चैकभुक्ते वा ॥100॥
अन्वयार्थ : [उपवासे] उपवास के दिन [वा] अथवा [एक भुक्ते] एकाशन के दिन [व्यापारवैमनस्यात्] शरीरादिक की चेष्टा और मन की व्यग्रता अथवा कलुषता से [विनिवृत्त्याम्] निवृत्ति होने पर [अन्तरात्मविनिवृत्त्या] मानसिक विकल्पों की विशिष्ट निवृत्तिपूर्वक [सामयिकम्] सामायिक को [बध्नीयात्] बढ़ाना चाहिए।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

इत्थम्भूतेषु स्थानेषु कथं तत्परिचेतव्यमित्याह --
बध्रीयादनुतिष्ठेत् । किं तत् ? सामायिकम् । कस्यां सत्याम् ? विनिवृत्त्याम् । कस्मात् ? व्यापारवैमनस्यात् व्यापार: कायादिचेष्टा वैमनस्यं मनोव्यग्रता चित्तकालुष्यं वा तस्माद्विनिवृत्यामपि सत्याम् अन्तरात्मविनिवृत्या कृत्वा तद्बध्नीयात् अन्तरात्मनो मनोविकल्पस्य विशेषेण निवृत्या । कस्मिन् सति तस्यां तया तद्बध्रीयात् ? उपवासे चैकभुक्ते वा ॥
आदिमति :

सामायिक की वृद्धि किन भावों से करे ? इसके उत्तर स्वरूप में बतलाते हैं कि व्यापार-शरीर की चेष्टा और वैमनस्य- मन की व्यग्रता अथवा चित्त की कलुषता से रहित होकर मानसिक विकल्पों को विशेषरूप से हटाते हुए उपवास अथवा एकाशन के दिन विशेषरूप से सामायिक को बढ़ाना चाहिए । यहाँ पर चकार से उससे अन्य समय का भी ग्रहण होता है अर्थात् उपवास और एकाशन के सिवाय अन्य दिनों में भी सामायिक को बढ़ानी चाहिए ।