+ परीषह / उपसर्ग सहन का उपदेश -
शीतोष्णदंशमशकपरीषहमुपसर्गमपि च मौनधराः
सामयिकं प्रतिपन्ना अधिकुर्वीरन्नचलयोगाः ॥103॥
अन्वयार्थ : [सामायिकं] सामायिक को [प्रतिपन्ना] धारण करने वाले [मौनधरा:] मौनधारी [च] और [अचलयोगाः] योगों की चंचलता रहित गृहस्थ [शीतोष्णदंशमशकपरीषहम्] शीत, उष्ण तथा दंशमशक परीषह को [च] और [उपसर्गम्] उपसर्ग को [अपि] भी [अधिकुर्वीरन्] सहन करें ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

तथा सामायिकं स्वीकृतवन्तो ये तेऽपरमपि किं कुर्वन्तीत्याह --
अधिकुर्वीरन् सहेरन्नित्यर्थ: । के ते ? सामयिकं प्रतिपन्ना: सामायिकं स्वीकृतवन्त: । किं विशिष्टा: सन्त: ? अचलयोगा: स्थिरसमाधय: प्रतिज्ञानुष्ठानापरित्यागिनो वा । तथा मौनधरास्तत्पीडायां सत्यामपि क्लीबादिवचनानुच्चारका: दैन्यादिवचनानुच्चारका: । कमधिकुर्वीरन्नित्याह- शीत्येत्यादि-शीतोष्णदंशमशकानां पीडाकारिणां तत्परिसमन्तात् सहनं तत्परीषहस्तं, न केवलं तमेव अपि तु उपसर्गमपि च देवमनुष्यतिर्यक्कृतम् ॥
आदिमति :

जिन्होंने सामायिक को स्वीकार किया है, ऐसे गृहस्थ ध्यान में स्थिर होकर ध्यान करने की प्रतिज्ञा से चलायमान नहीं होते हुए तथा मौनव्रतधारी बनकर शीत-उष्ण, डांस-मच्छर आदि की पीड़ाकारक परीषह को तथा देव-मनुष्य एवं तिर्यञ्चों के द्वारा किये गये उपसर्ग को दीनतापूर्वक शब्दों का उच्चारण नहीं करते हुए सहन करें ।