
प्रभाचन्द्राचार्य :
अथेदानीं प्रोषधोपवासलक्षणं शिक्षाव्रतं व्याचक्षाण: प्राह -- प्रोषधोपवास: पुनज्र्ञातव्य: । कदा ? पर्वणि चतुर्दश्याम् । न केवलं पर्वणि, अष्टम्यां च । किं पुन: प्रोषधोपवासशब्दाभिधेयम् ? प्रत्याख्यानम् । केषाम् ? चतुरभ्यवहार्याणां चत्वारि अशनपानखाद्यलेह्यलक्षणानि तानि चाभ्यवहार्याणि च भक्षणीयानि तेषाम् । किं कस्याञ्चिदेवाष्टम्यां चतुर्दश्यां च तेषां प्रत्याख्यानमित्याह- सदा सर्वकालम् । काभि: इच्छाभिर्व्रतविधानवाञ्छाभिस्तेषां प्रत्याख्यानं न पुनव्र्यवहार कृतधरणकादिभि: ॥ |
आदिमति :
प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी-पर्व के दिनों में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चार प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास कहलाता है । यहाँ पर जो 'सदा' शब्द दिया है, उससे यह सिद्ध होता है कि चार प्रकार के आहार का त्याग सदा के लिए अर्थात् जीवनपर्यन्त की प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी के लिए होना अनिवार्य है । यह त्याग व्रत की भावना से होना चाहिए, न कि लोकव्यवहार में किये गये धरणा आदि की भावना से अर्थात् अपनी किसी मांग को स्वीकार करने के लिए त्याग आदि करना धरणा है। ऐसे त्याग को प्रोषधोपवास नहीं कहते हैं । |