+ उपवास के दिन कर्तव्य -
धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान्
ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालूः ॥108॥
अन्वयार्थ : [उपवसन] उपवास करने वाला व्यक्ति [अतन्द्रालूः] आलस्य-रहित होता [सतृष्णः] उत्कंठित होता हुआ [श्रवणाभ्यां] कानों से [धर्मामृतं] धर्मरूपी अमृत को [पिबतु] स्वयं पीवे [वा] अथवा [अन्यान्] दूसरों को [पाययेत्] पिलावे अथवा आलस्य रहित होता हुआ [ज्ञानध्यानपरो] ज्ञान और ध्यान में तत्पर [भवतु] होवे ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

एतेषां परिहारं कृत्वा किं तद्दिनेऽनुष्ठातव्यमित्याह --
उपवसन्नुपवासं कुर्वन् । धर्मामृतं पिबतु धर्मम् एवामृतं सकलपाणिनामाप्यायकत्वात् तत् पिबतु । काभ्याम् ? श्रवणाभ्याम् । कथम्भूत: ? सतृष्ण: साभिलाष: पिबन् न पुनरुपरोधादिवशात् । पाययेद् वान्यान् स्वमेवावगतधर्मस्वरूपस्तु अन्यतो धर्मामृतं पिबन् अन्यानविदिततत्स्वरूपान् पाययेत् तत् । ज्ञानध्यानपरो भवतु, ज्ञानपरो द्वादशानुप्रेक्षाद्युपयोगनिष्ठ: ।

अधु्रवाशरणे चैव भव एकत्वमेव च

अन्यत्वमशुचित्वं च तथैवास्रवसंवरौ ॥१॥

निर्जरा च तथा लोकबोधदुर्लभधर्मता

द्वादशैता अनुप्रेक्षा भाषिता जिनपुङ्गवै: ॥२॥

ध्यानपर: आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयलक्षणधर्मध्याननिष्ठो वा भवतु । किंविशिष्ट: ? अतन्द्रालु: निद्रालस्यरहित: ॥
आदिमति :

उपवास करने वाला धर्मरूपी अमृत को कानों से पीवे । धर्म को अमृत कहा है, क्योंकि यह समस्त प्राणियों के सन्तोष का कारण है । यदि उपवास करने वाला व्यक्ति वस्तुस्वरूप का ज्ञाता नहीं है, तो उत्सुकतापूर्वक अन्य विशिष्टजनों से धर्म के उपदेश को अपने कानों से सुने । यदि स्वयं तत्त्ववेत्ता है तो दूसरों को धर्मोपदेश सुनावे तथा आलस्य-प्रमाद को छोडक़र ध्यान-स्वाध्याय में लीन होते हुए अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इन बारह भावनाओं के चिन्तन में उपयोग को लगावे अथवा आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय लक्षणरूप धर्मध्यान में तत्पर रहे ।