+ दान का फल -
गृहकर्मणापि निचितं कर्मविमार्ष्टि खलु गृहविमुक्तानाम्
अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ॥114॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार [वारि] जल [रुधिरमलं] खून को [धावते] धो देता है, [निचितं] निश्चय से उसी प्रकार [गृहविमुक्तानाम्] गृहरहित निग्र्रन्थ मुनियों के लिए दिया हुआ [प्रतिपूजा] दान [खलु] वास्तव में [गृहकर्मणापि] गृहस्थी सम्बन्धी [कर्म] कार्यों से उपार्जित अथवा सुदृढ़ भी [कर्मविमार्ष्टि] कर्म को नष्ट कर देता है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

इत्थं दीयमानस्य फलं दर्शयन्नाह --
विमाष्र्टि स्फेटयति । खलु स्फुटम् । किं तत् ? कर्म पापरूपम् । कथम्भूतम् ? निचितमपि उपार्जितमपि पुष्टमपि वा । केन ? गृहकर्मणा सावद्यव्यापारेण । कासौ कत्र्री ? प्रतिपूजा दानम् । केषाम् ? अतिथीनां न विद्यते तिथिर्येषां तेषाम् । किंविशिष्टानाम् ? गृहविमुक्तानां गृहरहितानाम् । अस्यैवार्थस्य समर्थनार्थं दृष्टान्तमाह -- रुधिरमलं धावते वारि । अलंशब्दो यथार्थे । अयमर्थो रुधिरं यथा मलिनमपवित्रं च वारि कर्तृ निर्मलं पवित्रं च धावते प्रक्षालयति तथा दानं पापं विमार्ष्टि ॥
आदिमति :

जिनके सभी तिथियाँ एक समान हैं, ऐसे गृहत्यागी अतिथियों को दान देने से पापरूप व्यापारादि कार्यों से उपार्जित किये हुए घोर पाप भी नष्ट कर दिये जाते हैं । इसी अर्थ का समर्थन करने के लिए दृष्टान्त देते हैं -- जिस तरह मलिन रक्त को पवित्र जल धो डालता है, उसी प्रकार दान देने से पापकर्म नष्ट हो जाते हैं ।