+ नवधा भक्ति का फल -
उच्चैर्गोत्रं प्रणतेर्भोगो, दानादुपासनात्पूजा
भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ॥115॥
अन्वयार्थ : [तपोनिधिषु] तप के खजाने स्वरूप मुनियों को [प्रणते:] नमस्कार करने से [उच्चैर्गोत्रं] उच्चगोत्र, [दानात्] आहारादि दान देने से [भोग:] भोग, [उपासनात्] उपासना आदि करने से [पूजा] सम्मान, [भक्ते:] भक्ति करने से [सुन्दररूपं] सुन्दररूप और [स्तवनात्] स्तुति करने से [कीर्ति:] सुयश [प्राप्यते] प्राप्त किया जाता है।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

साम्प्रतं नवप्रकारेषु प्रतिग्रहादिषु क्रियमाणेषु कस्मात् किं फलं सम्पद्यत इत्याह --
तपोनिधिषु यतिषु । प्रणते: प्रणामकरणादुच्चैर्गोत्रं भवति । तथा दानादशनशुद्धिलक्षणाद्भोगो भवति । उपासनात् प्रतिग्रहणादिरूपात् सर्वत्र पूजा भवति । भक्तेर्गुणानुरागजनितान्त: श्रद्धाविशेषलक्षणाया: सुन्दररूपं भवति । स्तवनात् श्रुतजलधीत्यादिस्तुतिविधानात् सर्वत्र कीर्तिर्भवति ॥
आदिमति :

यतियों को प्रणाम करने से उच्चगोत्र का बंध होता है । भोजन की शुद्धिपूर्वक दान देने से भोगों की प्राप्ति होती है । पडग़ाहनादि करने से सर्वत्र पूजा-प्रभावना होती है । भक्ति -- उनके गुणानुराग से उत्पन्न अन्तरङ्ग में श्रद्धाविशेष से सुन्दररूप और स्तुति अर्थात् 'आप ज्ञान के सागर स्वरूप हैं' इत्यादि स्तुति करने से कीर्ति प्राप्त होती है ।