+ स्वाध्याय का उपदेश -
शोकं भयमवसादं, क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा
सत्त्वोत्साहमुदीर्य च, मन: प्रसाद्यं श्रुतैरमृतै: ॥126॥
अन्वयार्थ : [शोकं] शोक, [भयं] डर, [अवसादं] विषाद, [क्लेदं] स्नेह, [कालुष्यम्] रागद्वेष और [अरतिम्] अप्रीती को [अपि] भी [हित्वा] छोड़कर [च] और [सत्त्वोत्साहम्] बल और उत्साह को [उदीर्य] प्रकट करके [अमृतैः] अमृत के समान [श्रुतै:] शास्त्रों से [मनः] मन को [प्रसाद्यम] प्रसन्न करना चाहिये ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

एवंविधमालोचनां कृत्वा महाव्रतमारोप्यैतत् कुर्यादित्याह-
प्रसाद्यं प्रसन्नं कार्यम् । किं तत् ? मन: । कै: ? श्रुतैरागमवाक्यै: । कथम्भूतै: ? अमृतै: अमृतोपमै: संसारदु:खसन्तापापनोदकैरित्यर्थ: । किं कृत्वा ? हित्वा । किं तदित्याह- शोकमित्यादि । शोकम्- इष्टवियोगे तद्गुणशोचनं, भयं- क्षुत्पिपासादिपीडानिमित्तमिहलोकादिभयं वा, अवसादं विषादं खेदं वा, क्लेदं स्नेहं, कालुष्यं क्वचिद्विषये रागद्वेषपरिणतिम् । न केवलं प्रागुक्तमेव अपि तु अरतिमपि अप्रसत्तिमपि । न केवलमेतदेव कृत्वा किन्तु उदीर्य च प्रकाश्य च । कम् ? सत्त्वोत्साहं सल्लेखनाकरणेऽकातरत्वम् ॥

आदिमति :

इष्ट का वियोग होने पर उसके गुणों का बार-बार चिन्तन करना शोक कहलाता है । क्षुधा-तृषा आदि की पीड़ा के निमित्त से जो डर लगता है, वह भय कहलाता है अथवा इहलोकभय, परलोकभय (व्याधि, मरण, असंयम, अरक्षण, आकस्मिक) आदि के भेद से भय सात प्रकार का है । विषाद अथवा खेद को अवसाद कहते हैं । स्नेह को क्लेद कहते हैं । किसी के विषय में राग-द्वेष की जो परिणति होती है, उसे कालुष्य कहते हैं । अप्रसन्नता को अरति कहते हैं । सल्लेखना करने में जो कायरता का अभाव है, उसे सत्त्वोत्साह कहते हैं । सल्लेखना करने वाला इन शोकादि को छोडक़र शास्त्ररूपी अमृत के द्वारा मन को प्रसन्न करे । यहाँ पर संसार के दु:खों से उत्पन्न हुए सन्ताप को दूर करने के लिए शास्त्र को अमृत कहा गया है । अत: सल्लेखना धारण करने वाला मनुष्य अपने मन को शास्त्र के पठन-श्रवण में लगावे ।