+ मुक्तजीव कहाँ रहते हैं ? -
नि:श्रेयसमधिपन्ना-स्त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं दधते
निष्किट्टिकालिकाच्छवि-चामीकरभासुरात्मान: ॥134॥
अन्वयार्थ : [निष्कट्टिकालिकात्] कीट और कालिमा से रहित [छविचामीकर] कान्तिवाले सुवर्ण के समान [भासुरात्मानः] जिसका स्वरुप प्रकाशवान हो रहा है ऐसे [निःश्रेयसमधिपन्ना:] मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्ध परमेष्ठी [त्रैलोक्य] तीन लोक के [शिखामणिश्रियं] अग्रभाग पर चूड़ामणि की शोभा को [दधते] धारण करते हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

ते तत्राविकृतात्मान: सदा स्थिता: किं कुर्वन्तीत्याह-
नि:श्रेयसमधिपन्ना: प्राप्तास्ते दधते धरन्ति । काम् ? त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं त्रैलोक्यस्य शिखा चूडाऽप्रभागस्तत्र मणिश्री: चूडामणिश्री: ताम् । किंविशिष्टा: सन्त इत्याह- निष्किट्टेत्यादि । किट्टं च कालिका च ताभ्यां निष्क्रान्ता सा छविर्यस्य तच्चामीकरं च सुवर्णं तस्येव भासुरो निर्मलतया प्रकाशमान आत्मा स्वरूपं येषाम् ॥

आदिमति :

जिस प्रकार कीट-कालिमा से रहित होकर सुवर्ण कान्ति को धारण करता हुआ अतिशय दीप्तिमान होता है, उसी प्रकार द्रव्यकर्म-भावकर्मरूपी कालिमा का अभाव हो जाने से यह आत्मा पूर्णरूप से निर्मल होता हुआ प्रकाशमान रहता है । ऐसे सिद्ध परमेष्ठी लोक के शिखर पर चूड़ामणि की शोभा को धारण करते हैं ।