+ सामायिक प्रतिमा -
चतुरावर्तत्रितय-श्चतु:प्रणाम: स्थितो यथाजात:
सामयिको द्विनिषद्य-स्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ॥139॥
अन्वयार्थ : जो [चतुरावर्तत्रितय:] चार बार तीन-तीन आवर्त करता है, [चतु:प्रणाम:] चार प्रणाम करता है, [स्थित:] कायोत्सर्ग से खड़ा होता है, [यथाजात:] बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्यागी होता है, [द्विनिषद्य:] दो बार बैठकर नमस्कार करता है, [त्रियोगशुद्ध:] तीनों योगों को शुद्ध रखता है और [त्रिसन्ध्यम] तीनों संध्याओं में [अभिवन्दी] वन्दना करता है, वह [सामयिक:] सामायिक प्रतिमाधारी है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

अधुना सामायिकगुणसम्पन्नत्वं श्रावकस्य प्ररूपयन्नाह --
सामयिक: समयेन प्राक्प्रतिपादितप्रकारेण चरतीति सामयिकगुणोपेत: । किंविशिष्ट: ? चतुरावर्तत्रितय: चतुरो वारानावर्तत्रितयं यस्य । एकैकस्य हि कायोत्सर्ग

आदिमति :

सामायिक का लक्षण पहले बता चुके हैं । उस प्रकार जो आचरण करता है, वह सामायिक गुण सहित कहलाता है । यहाँ पर सामायिक प्रतिमा का लक्षण बतलाते हुए उसकी विधि का भी निर्देश किया गया है । सामायिक करने वाला व्यक्ति एक-एक कायोत्सर्ग के बाद चार बार तीन-तीन आवर्त करता है । अर्थात् एक कायोत्सर्ग विधान में 'णमो अरहंताणं' इस आद्य सामायिक दण्डक और 'थोस्सामि हं' इस अन्तिम स्तव दण्डक के तीन-तीन आवर्त और एक-एक प्रणाम इस तरह बारह आवर्त और चार प्रणाम करता है । सामायिक करने वाला श्रावक इस क्रिया को खड़े होकर कायोत्सर्ग मुद्रा में करता है । सामायिक काल में नग्नमुद्राधारी के समान बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह की चिन्ता से परिमुक्त रहता है । देववन्दना करने वाले को प्रारम्भ में और अन्त में बैठकर प्रणाम करना चाहिए । इस विधि के अनुसार वह दो बार बैठकर प्रणाम करता है- मन-वचन-काय इन तीनों योगों को शुद्ध रखता है और सम्पूर्ण सावद्य व्यापार का त्याग करता हुआ तीनों संध्याकालों में देववन्दना करता है ।