
प्रभाचन्द्राचार्य :
अधुनापरिग्रहनिवृत्तिगुणंश्रावकस्यप्ररूपयन्नाह- परिसमन्तात्, चित्तस्थ: परिग्रहोहिपरिचित्तपरिग्रहस्तस्माद्विरत: श्रावकोभवति।किंविशिष्ट: सन् ? स्वस्थोमायादिरहित: । तथासन्तोषपर: परिग्रहाकाङ्क्षाव्यावृत्त्यासन्तुष्ट: तथा।निर्ममत्वरत: । किंकृत्वा ? उत्सृज्यपरित्यज्य । किंतत् ? ममत्वंमूच्र्छा । क्व ? बाह्येषुदशसुवस्तुषु । एतदेवदशधापरिगणनंबाह्यवस्तूनांदश्र्यते ।;;क्षेत्रंवास्तुधनंधान्यंद्विपदंचचतुष्पदम्;;शयनासनेचयानंकुप्यंभाण्डमितिदश॥;;क्षेत्रंसस्याधिकरणंचडोहलिकादि ।वास्तुगृहादि । धनंसुवर्णादि । धान्यंब्रीह्यादि । द्विपदंदासीदासादि । चतुष्पदंगवादि । शयनंखट्वादि । आसनंविष्टरादि । यानंडोलिकादि । कुप्यंक्षौमकापसिकौशेयादि । भाण्डंश्रीखण्डमंजिष्टाकांस्यताम्रादि ॥ |
आदिमति :
'परिसमन्तात् चित्तस्थ: परिग्रहो हि परिचित्तपरिग्रह:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो परिग्रह निरन्तर चित्त में स्थित रहता है, ऐसा ममकाररूप परिग्रह परिचित्तपरिग्रह कहलाता है । ऐसे परिग्रह से विरत वही श्रावक हो सकता है, जो स्वस्थ—मायाचारादि से रहित हो तथा सन्तोष धारण में तत्पर हो, परिग्रह की आकाङ्क्षा से निवृत्त हो, निर्ममत्व हो अर्थात् जिसने दश प्रकार के बाह्य परिग्रह के ममत्व का त्याग कर दिया है । अब दस प्रकार का बाह्य परिग्रह बतलाते हैं -- क्षेत्र- धान्य की उत्पत्ति का स्थान, ऐसे डोहलिका आदि स्थानों को खेत कहते हैं । (जिस खेत में चारों ओर से बांध बाँधकर पानी रोक लेते हैं, ऐसे धान्य के छोटे-छोटे खेतों को डोहलिका कहते हैं ।) वास्तु—मकान आदि । धन—सोना-चाँदी आदि । धान्य—चावलादि । द्विपद—दासी-दासादि । चतुष्पद—गाय आदि । शयन—पलंगादि और आसन—बिस्तर आदि । यान—पालकी आदि । कुप्य—रेशमी-सूती कोशादि के वस्त्र । भाण्ड- चन्दन, मजीठ, कांसा तथा तांबे आदि के बर्तन । यह दस प्रकार का परिग्रह है । इसका त्यागी परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी होता है । |