+ श्रेष्ठ ज्ञाता कौन है ? -
पाप-मरातिर्धर्मो, बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्
समयं यदि जानीते, श्रेयोज्ञाता ध्रुवं भवति ॥148॥
अन्वयार्थ : [पापम्] पाप ही [जीवस्य] जीव का [अराति:] शत्रु है [च] और [धर्म:] धर्म ही जीव का [बंधु] हितकारी है, [इति] इस प्रकार [निश्चिन्वन्] निश्चय करता हुआ वह श्रावक [समयम्] आगम / आत्मा को [जानीते] जानता है, [तर्हि] तो वह [ध्रुवं] निश्चय से [श्रेयोज्ञाता] श्रेष्ठज्ञाता अथवा कल्याण का ज्ञाता [भवति] होता है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

तप: कुर्वन्नपियोह्यागमज्ञ: सन्नेवंमन्यतेतदाश्रेयोज्ञाताभवतीत्याह --
यदिसमयम्आगमंजानीतेआगमज्ञोयदिभवतितदाधु्रवंनिश्चयेनश्रेयोज्ञाताउत्कृष्टज्ञातासभवति । किंकुर्वन् ? निश्चिन्वन् । कथमित्याह - पापमित्यादि - पापमधर्मोऽराति: शत्रुर्जीवस्यानेकापकारकत्वात्धर्मश्चबन्धुर्जीवस्यानेकोपकारकत्वादित्येवंनिश्चिन्वन् ॥

आदिमति :

यदि श्रावक आगम को जानने वाला है तो उसको यह निश्चय है कि पाप / अधर्म / मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र जीव का शत्रु है, क्योंकि यह अनेक प्रकार से अपकार करने वाला है और धर्म-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप परिणति अनेक उपकार का कारण होने से जीव की बन्धु है । तब वह श्रेष्ठ ज्ञाता होता है ।