
प्रभाचन्द्राचार्य :
तप: कुर्वन्नपियोह्यागमज्ञ: सन्नेवंमन्यतेतदाश्रेयोज्ञाताभवतीत्याह -- यदिसमयम्आगमंजानीतेआगमज्ञोयदिभवतितदाधु्रवंनिश्चयेनश्रेयोज्ञाताउत्कृष्टज्ञातासभवति । किंकुर्वन् ? निश्चिन्वन् । कथमित्याह - पापमित्यादि - पापमधर्मोऽराति: शत्रुर्जीवस्यानेकापकारकत्वात्धर्मश्चबन्धुर्जीवस्यानेकोपकारकत्वादित्येवंनिश्चिन्वन् ॥ |
आदिमति :
यदि श्रावक आगम को जानने वाला है तो उसको यह निश्चय है कि पाप / अधर्म / मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र जीव का शत्रु है, क्योंकि यह अनेक प्रकार से अपकार करने वाला है और धर्म-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप परिणति अनेक उपकार का कारण होने से जीव की बन्धु है । तब वह श्रेष्ठ ज्ञाता होता है । |