+ रत्नत्रय का फल -
येन स्वयं वीतकलंकविद्या-दृष्टिक्रिया-रत्नकरण्डभावम्
नीतस्तमायाति-पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु-विष्टपेषु ॥149॥
अन्वयार्थ : [येन] जिसने [स्वयं] अपने आत्मा को [वीतकलंक] निर्दोष [विद्या] ज्ञान, [दृष्टि] दर्शन और [क्रिया] चारित्ररूप [रत्नकरण्डभावम्] रत्नों के करण्डभाव-पिटारापने को [नीत:] प्राप्त कराया है, [तं] उसे [त्रिषुविष्टपेषु] तीनों लोकों में [पतीच्छयेव] पति की इच्छा से ही मानों [सर्वार्थसिद्धि:] धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थों की सिद्धि [आयाति] प्राप्त होती है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

इदानींशास्त्रार्थानुष्ठातु: फलंदर्शयन्नाह --
येनभव्येनस्वयम्आत्मास्वयंशब्दोऽत्रात्मवाचक: नीत: प्रापित: । कमित्याह- वीतेत्यादि, विशेषेणइतोगतोनष्ट: कलङ्कोदोषोयासांताश्चताविद्यादृष्टिक्रियाश्चज्ञानदर्शनचारित्राणितासांकरण्डभावंतंभव्यम्आयातिआगच्छति । कासौ ? सर्वार्थसिद्धि: धर्मार्थकाममोक्षलक्षणार्थानांसिद्धिर्निष्पत्ति: कत्र्री । कयेवायाति ? पतीच्छयेवस्वयम्बरविधानेच्छयेव । क्व ? त्रिषुविष्टपेषुत्रिभुनवेषु ॥

आदिमति :

यहाँ पर स्वयं शब्द आत्मा का वाचक है । जिसके कलंकदोष विशेषरूप से नष्ट हो गये हैं, उसे वीतकलंक कहते हैं । यह वीतकलङ्क विशेषण विद्या / ज्ञान, दृष्टि / दर्शन और क्रिया / चारित्र इन तीनों के साथ लगता है । जिस भव्य ने अपनी आत्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूपी रत्नों का करण्ड-पिटारा बनाया है अर्थात् जिसकी आत्मा में ये प्रकट हो गये हैं, उसे सर्व अर्थ –- धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप समस्त अर्थों की सिद्धि उस प्रकार हो जाती है, जिस प्रकार पति की इच्छा रखने वाली कन्या स्वयंवर विधान में अपनी इच्छा से पति को प्राप्त करती है ।