हे मूढ़ दुर्बद्धि प्राणी ! तू जो किसी की शरण चाहता है, तो इस त्रिभुवन में ऐसा कोई भी शरीरी (जीव) नहीं है कि, जिसके गले में काल की फॉँसी नहीं पड़ती हो ।
अन्वयार्थ : न स कोऽप्यस्ति दुर्बुद्धे शरीरी भुवनत्रये ।
यस्य कण्ठे कृतान्तस्य न पाश: प्रसरिष्यति ॥१॥

  वर्णीजी