एक: स्वर्गी भवति विबुध: स्त्रीमुखाम्भोजभृङ्ग:
एक: श्वाभ्रं पिबति कलिलं छिद्यमान: कृपाणै: ।
एक: क्रोधाद्यनलकलित: कर्म बध्नाति विद्वान्
एक: सर्वावरणविगमे ज्ञानराज्यं भुनक्ति ॥11॥
अन्वयार्थ : यह आत्मा आप एक ही देवांगना के मुखरूपी कमल की सुगन्धी लेने वाले भ्रमर के समान स्वर्ग का देव होता है और अकेला आप ही कृपाण, छुरी, तलवारों से छिन्न-भिन्न किया हुआ नरक सम्बन्धी रुधिर को पीता है तथा अकेला आप क्रोधादि कषायरूपी अग्नि सहित होकर कर्मों को बाँधता है और अकेला ही आप विद्वान् ज्ञानी पण्डित होकर समस्त कर्मरूप आवरण के अभाव होने पर ज्ञानरूप राज्य को भोगता है ।
(दोहा)
परमारथतें आत्मा, एक रूप ही जोय ।
कर्मनिमित्त विकल्प घनें, तिनि नाशें शिव होय ॥४॥

  वर्णीजी