
एकाकित्वं प्रपन्नोऽस्मि यदाहं वीतविभ्रम: ।
तदैव जन्मसम्बन्ध: स्वयमेव विशीर्यते ॥10॥
अन्वयार्थ : जिस समय यह जीव भ्रमरहित हो ऐसा चिंतवन करे कि मैं एकता को प्राप्त हो गया हूँ उसी समय इस जीव का संसार का सम्बन्ध स्वयं ही नष्ट हो जाता है क्योंकि संसार का सम्बन्ध तो मोह से है और यदि मोह जाता रहे तो आप एक हैं फिर मोक्ष क्यों न पावें ?
वर्णीजी