यत्पर्याप्तस्तथा संज्ञी पञ्चाक्षोऽवयवान्वित: ।
तिर्यक्ष्वपि भवत्यङ्गी तन्न स्वल्पाशुभक्षयात् ॥3॥
अन्वयार्थ : कदाचित् त्रसगति भी पावे तो तिर्यंच योनि में पर्याप्तता (पूर्णावयवसंयुक्तत्व) पाना कुछ न्यून पाप के क्षय से नहीं होता है अर्थात् बहुत पाप के क्षय होने पर पाता है। उसमें भी मन सहित पंचेन्द्रिय पशु का शरीर पाना बहुत ही दुर्लभ है, तिस पर भी सम्पूर्ण अवयव पाना अतिशय दुर्लभ है ॥३॥

  वर्णीजी