वाहिव्व दुप्पसज्झा जरा य समण्णजोग्गहाणिकरी ।
उवसग्गा वा देविय-माणुस-तेरिच्छिया जस्स॥73॥
अणुलोमा वा सत्तू चारित्तविणासगा हवे जस्स ।
दुब्भिक्खे वा गाढे अडवीए विप्पणट्ठो वा॥74॥
चक्खुं व दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुब्बलं जस्स ।
जंघाबलपरिहीणो जो ण समत्थो विहरिदुं वा॥75॥
अण्णम्मि चावि एदारिसम्मि आगाढकारणे जादे ।
अरिहो भत्तपइण्णाए होदि विरदो अविरदो वा॥76॥
उस्सरदि जस्स चिरमवि सुहेण सामण्णमणदिचारं वा ।
णिज्जावया य सुलहा दुब्भिक्खभयं च जदि णत्थ॥77॥
तस्स ण कप्पदि भत्तपइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो ।
सो मरणं पच्छिंतो होदि हु सामण्ण-णिव्विण्णो॥78॥
व्याधि हुई अनिवार्य जिसे श्रामण्य विनाशक जरा हुई ।
देव मनुज तिर्यंचों द्वारा जिस पर हों उपसर्ग अती॥73॥
जिसके शत्रु हुए अनुकूल चरित्र विनाशन हेतु कहो ।
हो दुर्भिक्ष तथा भीषण अटवी में जो पथ भूला हो॥74॥
दुर्बल हुए नेत्र हों जिसके और कर्ण भी हों दुर्बल ।
हो विहार में नहिं समर्थ जो हीन हुआ जंघा का बल॥75॥
और अनेक प्रबल कारण हों तो मुनिवर या देशव्रती ।
प्रत्याख्यान-मरण के योग्य तथा अविरत सम्यग्दृष्टि॥76॥
सुखपूर्वक चिरकाल जिसे हो निरतिचार श्रामण्य अहो ।
निर्यापक भी सुलभ हुए दुर्भिक्ष आदि का भय नहिं हो॥77॥
भय अनुपस्थित हो तो प्रत्याख्यान मरण नहिं योग्य उसे ।
यदि वह मरणाकांक्षी हो तो है श्रामण्य विरक्ति उसे॥78॥
अन्वयार्थ : ऐसा पुरुष भक्तप्रत्याख्यान के योग्य है - जिसकी व्याधि दु:खपूर्वक भी अर्थात् बहुत यत्न करने पर भी दूर होने में समर्थ नहीं हो तथा श्रमण, जिसे साधुपने की प्रवृत्ति की हानि करने वाली जरा आ गई हो- जिस जरा से चारित्रधर्म पालने में समर्थ न हों । जरा का क्या अर्थ है? जीर्यन्ते अर्थात् रूप, आयु, बलादि गुण जिस अवस्था में विनाश को प्राप्त हो जायें, वह जरा है तथा देव, मनुष्य, तिर्यंच, अचेतनकृत उपसर्ग जिन पर आया हो और जिसके चारित्रधर्म का विनाश करने वाला शत्रु अर्थात् बैरी अनुकूल हो अथवा अनुकूल कुटुम्बादि बांधव स्नेह से या मिथ्यात्व की प्रबलता से या अपने भरण-पोषण के लोभ से चारित्रधर्म विनाशने को उद्यमी हों तथा जगत का नाश करने वाला दुर्भिक्ष आ जाये, जिसमें अन्न-पानी मिलना कठिन हो जाये एवं महावन में दिशा भूल जाने से वन ही वन में चले जाते हों - जहाँ मार्ग बताने वाला कोई नहीं हो या जिस ओर जायें, उस ओर सैकडों कोस वन ही हो, ऐसे वन में संन्यास धारण करना ही योग्य है । तथा जिसके नेत्र दुर्बल हों/नेत्रों की ज्योति कम होने लगी हो, ईर्यापथादि मार्ग शोधने में समर्थ न हो और कर्ण इन्द्रिय शब्द ग्रहण/सुनने में समर्थ न हो, जंघा बल रहित हो जाये तो विहार करने एवं खडे होकर आहार करने की सामर्थ्य नहीं हो - इत्यादि और भी दयृढ/प्रचण्ड कारणों के आ जाने पर विरत/साधु, देशव्रती श्रावक वा अविरत/अविरत सम्यग्दृष्टि भक्तप्रत्याख्यान मरण के अर्ह अर्थात् योग्य हैं ।
सदासुखदासजी