+ अब दो गाथाओं द्वारा श्रुतभावना कहते हैं- -
सुदभावणाए णाणं दंसण तव संजमं च परिणवइ ।
तो उवओगपइण्णा सुहमच्चविदो समाणेइ॥199॥
जदणाए जोग्गपरिभाविदस्स जिणवयणमणुगदमणस्स ।
सदिलोवं कादंु जे ण चयंति परीसहा ताहे॥200॥
दर्शन-ज्ञान और तप संयम परिणमते श्रुत भावना से ।
शुध-उपयोग प्रतिज्ञा पूरी, सुखपूर्वक अचलित उससे॥199॥
यत्नपूर्वक योग भावना करे, रमे जिन-वचनों में ।
घोर परीषह भी उसकी स्मृति को नहीं मिटा सकते॥200॥
अन्वयार्थ : सर्वज्ञ प्ररूपित जो श्रुत, उसके अर्थ में निरंतर प्रवृत्तिरूप भावना से श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है । श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है और ज्ञान की उत्पत्ति से अवगाढ सम्यग्दर्शन होता है तथा सर्व घाति कर्म की निर्जरा का कारण शुक्लध्यान नामक तप होता है । यथाख्यात नामक चारित्र और परिपूर्ण इन्द्रिय संयम होता है तथा पहले जो प्रतिज्ञा धारण की थी कि मैं अपने आत्मा को दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप परिणामों को रचने में प्रवर्तन करता हूँ, वह उपयोग की प्रतिज्ञा सुखरूप क्लेशरहित आराधना में अचलित परिपूर्ण करता है । इसलिए श्रुत की भावना ही श्रेष्ठ है और जिनेन्द्र भगवान के वचन में लीन है मन जिनका तथा यत्न पूर्वक योग/तप उसकी भावना करने वाले पुरुष की रत्नत्रय में उद्यमरूप जो स्मृति/स्मरण, उसे बिगाडने में परीषह भी समर्थ नहीं होते हैं ।

  सदासुखदासजी