+ वैसे ही दृष्टांत पूर्वक स्वरूप का उपदेश तीन गाथाओं में कहते हैं - -
पुव्वमकारिदजोग्गो समाधिकामो तहा मरणकाले ।
ण भवदि परीसहसहो विसयसुहपरम्महो जीवो॥196॥
जोग्गमकारिज्जंतो अस्सो दुहभाविदो चिरं कालं ।
रणभूमीए वाहिज्जमाणओ कुणदि जह कज्जं॥197॥
पुव्वं कारिदजोगो समाधिकामो तहा मरणकाले ।
होदि हु परीसहसहो विसयसुहपरम्मुहो जीवो॥198॥
पूर्वकाल में किया नहीं तप विषयों में आसक्त रहा ।
चाहे मरण-समाधि परन्तु परिषह सहन न कर सकता॥196॥
योग्याभ्यास किया जिसने वह अश्व कष्ट अति सहता है ।
युद्ध-भूमि में ले जाने पर योग्य कार्य सब करता है॥197॥
पहले से तप करने वाला विषयों से भी दूर रहे ।
मरण-समाधि काल में निश्चित कठिन परीषह वही सहे॥198॥
अन्वयार्थ : वैसे ही पहले तपश्चरण के द्वारा इन्द्रियों को वश नहीं किया, ऐसा समाधिमरण का इच्छुक मुनि विषयों के सुख में मूर्च्छित हुआ परीषह सहने में असमर्थ रहता है । जैसे चलने, भ्रमण करने वाला, उल्लंघन रूप योग के साधन सिखाया हुआ और बहुत समय पर्यंत शीत, उष्ण क्षुधा, तृषादि दु:ख का अभ्यास कराया हुआ अश्व रणभूमि में प्रेरित करने पर बैरियों पर विजय प्राप्ति रूप कार्य करता है ।
तैसे ही पहले तप के अभ्यास द्वारा अपने वशीभूत की हैंइन्द्रियाँ जिसने, ऐसे समाधिमरण का इच्छुक जो मुनि, वह ही मरण-समय में क्षुधादि परीषह तथा रोगादि वेदना सहने में समर्थ होता है तथा विषय-सुख से पराङ्मुख होता है । ऐसी असंक्लिष्ट भावना के पाँच भेदों में तपोभावना का वर्णन किया ।

  सदासुखदासजी