
देवेहिं भेसिदो वि हु कयावराधो व भीमरूवेहिं ।
तो सत्तभावणाए वहइ भरं णिब्भओ सयलं॥201॥
देवों से पीड़ित अरु जीव भयंकर जिसे सताते हों ।
तो भी सत्त्व भावना से वे निर्भय हो संयम धरते॥201॥
अन्वयार्थ : जो अपने अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य रूप अखण्ड अविनाशी स्वरूप के अवलंबन द्वारा जीवन, मरण, संयोग, वियोगादि कर्मकृत परभावों को विनाशीक जानता है और कर्म के अभाव से अपने को अचल, अविनाशी, अनन्त गुणों से सहित अनंत ज्ञान, सुख रूप जानता है, उसके सत्त्वभावना होती है । जो पूर्व जन्म में या गृहस्थ अवस्था में मैंने अपराध किया हो, उससे वैर धारण करके भयानक रूप से सहित, ऐसे देवों द्वारा त्रासित/दु:खित किये जाने पर भी संयम का भार भयरहित होकर निर्वाह करता है ।
सदासुखदासजी