
खणणुत्तावणवालण - वीयणविच्छेत्तणावरोदत्तं ।
चिंतिय दुहं अदीहं मुज्झदि णो सत्तभाविदो दुक्खे॥202॥
बालमरणाणि साहू सुचिंतिदूणप्पणो अणंताणि ।
मरणे ससुट्ठिएविहि मुज्झइ णो सत्तभावणाणिरदो॥203॥
जैसे योद्धा युद्ध भावना से रण में भयभीत न हो ।
वैसे सत्त्व भावना से मुनि उपसगाब में नहीं डरे॥202॥
छेदा रोपा खोदा मुझको जला बहा - यह करे विचार ।
सत्त्व भावनायुत मुनि अल्प दुखों में भी भयभीत न हो॥203॥
अन्वयार्थ : संसार-परिभ्रमण करता हुआ मैं, सो पूर्व में पृथ्वीकाय को धारण करता हुआ, खोदने से, जलाने से, कुचलने से, कूटने से, फोडने से, रगडने से, पीसने से, खण्ड-खण्ड करने से, दूर से पटकने से अत्यन्त बाधा/वेदना पाई थी और जल रूप शरीर धारण किया, तब तीक्ष्ण सूर्य की किरणों के पडने से तथा अग्नि की ज्वाला से तप्तायमान होने से, पर्वतों के तट, गुफा, दराडादि ऊँचे स्थानों से अति वेग से कठोर शिला पाषाण भूमि में पडने से आमली/इमली, नमक, क्षारादि, विषादि द्रव्य के मिलाने से तथा धगधगायमान अग्नि के मध्य डालने से, गर्म लोहमय कडाहों में जला देने से, अग्निमय सुवर्ण लोहादि धातुओं के बुझाने से, वृक्ष से शिला पर गिरने से, हस्तप ादादि को मसलने से, तैरने में उद्यमी जो हस्ती, घोटक, मनुष्य, बलद इत्यादि के उदरस्थल, हस्तपादादिकों के घात से तथा पीटने से महान वेदना को प्राप्त हुआ हूँ । और जब पवन काय का शरीर धारण किया, तब वृक्ष, पर्वत, पाषाणादि के कठोर स्पर्श द्वारा, कठोर शरीरों के घात द्वारा, अन्य पवनों के घात से, अग्नि के स्पर्श से, पंखों के घात से तथा परस्पर पवन के घात से भ्रमण करके अत्यंत दु:ख को प्राप्त हुआ हॅूं ।
जब अग्निकाय का शरीर धारण किया; तब बुझाने से, मिट्टी, भस्म, बालू-रेत इत्यादि के द्वारा दबाने से, स्थूल/बहुत जल की धार पडने से, दण्ड काष्ठादिकों द्वारा ताडने से, लोष्ठपाषाणादि द्वारा चूर्ण करने से बहुत दु:ख को प्राप्त हुआ हूँ ।
जब फल-फूल, पल्लवादि वनस्पति काय को अंगीकार किया; तब मनुष्य, तिर्यंचादि के द्वारा तोडने से, भक्षण से, मसलने से, पीसने से, जलाने आदि अनेक दु:ख भोगे तथा गुल्म, लता, वृक्षादि को करोंत द्वारा चीरने से, बींधने/छेदने से, बिदारने से, चबाने से, राँधने से, घसीटने से प्रत्यक्ष देखकर दु:ख सहे, सो मैं अनंत बार वनस्पति काय धारण करके महाक्लेश को प्राप्त हुआ हूँ ।
तथा कुन्थु, पिपीलिका, लट, मकोडा/चीटा, उटकण/खटमल, मच्छर, डांस इत्यादि त्रस हुआ तब मार्ग में रथादि के चक्र-द्वारा कटने से, दबने से, हाथी, घोडा, गधे, बैल के खुरों द्वारा कटने से, चीथने से, दलमलाने से महान दु:ख भोगे तथा मार्ग में पेट छिद गया, मस्तक, पादादि कट गये, उनकी घोर वेदना भुगतने से खुजलाने से, नखों द्वारा कटने से, जल प्रवाह में वहने से, दावाग्नि में दग्ध होने से, वृक्ष, काष्ठ, पाषाणादि के गिरने से, मनुष्यों के पैरों द्वारा अवमर्दन से तथा बलवान जीवों द्वारा भक्षण किये जाने से, पक्षियों द्वारा चुगे जाने से, चिरकाल पर्यंत क्लेश को प्राप्त हुआ हूँ ।
तथा गर्दभ/गधा, ऊँट, भैंसा, बैल इत्यादि पर्यायों को प्राप्त हुआ, तब अधिक भार ढोने से तथा चढ़ने से एवं दृढ़ बाँधने से, अत्यन्त कर्कश कोड़ों, चमीटों, लाठी, मूसल इत्यादिकों के घात से तथा भोजन-पानी नहीं मिलने से, ठंडी, गर्मी, वर्षा पवनादि की घोर बाधा को प्राप्त होने से, कर्ण छेदने से, नासिका के भेदने से, अग्नि द्वारा या घन, फरसा, मुद्गर तथा पेनी धार वाली तलवार, छुरी इत्यादि आयुधों द्वारा बहुत काल तक उपद्रव को प्राप्त हुआ हूँ । तथा पैर टूटने जाने से, अंधा हो जाने से अथवा व्याधि बढ़ जाने से, कर्द या खड्डों में फँस जाने से, जैसे-तैसे पड़े रहने से, अंतरंग में तो भूख-प्यास, रोगजनित तीव्र वेदना और बाहर में दुष्ट व्याघ्र, स्याल, श्वानादि द्वारा भक्षण किये जाने से तथा काक, गीध इत्यादि दुष्ट पक्षियों द्वारा छेदा जाने से तथा काष्ठ-पाषाणादि बहुत भार के लादने से राड़े हुए जो वणा/घाव उनमें हजारों-लाखों कीड़े पड़ जाने से, पक्षियों की अति तीक्ष्ण चोंचों के घात द्वारा मर्म स्थानों के मांस निकालने/खाने से घोरतर वेदना को प्राप्त हूँ । वहाँ कोई शरण नहीं था, न ही कोई अपना था, अकेले ही तीव्रतर वेदना को भोगता रहा, किससे कहूँ? कोई अपना मित्र, हितेच्छु नहीं, कहने-सुनने की शक्ति ही नहीं ।
जब मैं वन का जीव मृगादि हुआ या पक्षी या जलचर हुआ, बलवान हुआ, तब निर्बलों का भक्षण किया । वहाँ रक्षक नहीं, परस्पर भक्षण किया तथा हिंसक मनुष्य भील, चांडाल, कसाई ढूँढ-ढूँढ मारते हैं, अनेक आयुध मुझ पर चलाते/काटते हैं, खून निकाल लेते हैं, चीरते हैं, विदारते हैं, टुकड़े करते हैं, पकाते हैं; तब कोई रक्षा करने वाला नहीं । ऐसी घोर वेदना तिर्यंचों कृत मिथ्यादर्शन और असंयम के प्रभाव से अनंनानंत भवों में अनंतबार तीव्र दुःखों की भोगी । तथा मनुष्य भवों में भी इन्द्रियों की विफलता से, दपरद्रता से, असाध्य रोग आ जाने से, इष्ट के अलाभ से, अनिष्ट संयोग से एवं इष्ट के वियोग से तथा पराधीन दासकर्म करने से, पर के द्वारा तिरस्कृत होने से, बन्दीगृह में पड़े रहने से, मार-पीट किये जाने से, धन की वांछा से, नहीं करने योग्य दुष्ट कार्य करने से, अन्याय-न्याय के विचार हीन षट्कमाब में प्रवर्तन करने से महा आपदा को प्राप्त हुआ हूँ ।
तथा देवों के भव धारण करके भी अनेकों मानसिक दुःखों को सहता रहा । जब महान ॠद्धि का धारक देव या इन्द्र सामानिक आदि देव आते हैं, तब हीन देवोंे को प्रेरणा देकर दूर चले जाओ, शीघ्र इस स्थान से निकल जाओ, अब यहाँ तुम्हारे खड़े रहने का समय नहीं, प्रभु के आने का, सिंहासन पर विराजने का समय है । कोई कहे - देवो! इन्द्र के आगमन का ढोल बजावो । कोई कहे - अरे देव! क्या देख रहे हो, ध्वजा धारण करो । कोई कहे - अरे! देवी के आगमन का समय है, सब अपनी-अपनी सेवा में सावधान हो जाओ । कोई कहते हैं - अरे!
इन्द्र के मनवांछित वाहन का रूप धारण करके खड़े रहो । अरे अल्प पुण्य के धारको, प्रभु को दासपने का विस्मरण हो गया क्या? जो निश्चल खड़े हो । प्रभु/इन्द्र के आगमन अवसर है, आगे दौड़ने के लिये सावधान हो जाओ । इत्यादि महत् देवों के कठोर वचनों के सुनने से घोर दुःखों को प्राप्त किया है एवं इन्द्रों की देह की प्रचुर प्रभा, ॠद्धि, विक्रिया, आज्ञा, ऐश्वर्य, वैभव, शक्ति, पपरवार अत्यन्त अद्भुतरूप को धारण करने वाली पटरानी तथा पपरवार की हजारों देवांगनायें उनके अद्भुत रूप, सुगंध, शरीर की कांति, अद्भुत विक्रिया, करोड़ों अप्सराओं द्वारा किये जाने वाले नृत्य के अखाड़े को देखने की अभिलाषा रूप अग्नि से अन्तःकरण में दग्ध होता हुआ घोर दुःखों को प्राप्त हुआ था तथा इन्द्र के सभागृह में, नृत्य अखाड़ों में नीच देव प्रवेश नहीं कर सकते, तब इन्द्रियों के विषयों का महा आताप तथा अपमान से घोर मानसिक दुःखों को प्राप्त किया है था आयु के छह माह अवशेष रहे, तब माला के मुरझाने से, आभरणों की कांति घट जाने से, शरीर की प्रभा का विनाश होने से, दशों दिशायें अंधकार रूप दिखने से, पर्याय के विनशने और नीचे पड़ने/जाने का जो मानसिक महा दुःख उत्पन्न हुआ, वह सातवें नरक के नारकियों को भी नहीं, ऐसे वचन अगोचर दुःख देवगति में भी प्राप्त किये हैं ।
तथा नरकगति के दुःख, जिससे उपमा देने योग्य कोई पदार्थ नहीं, तो कहने में कैसे आवे? वहाँ ताड़न, मारण, छेदन, भेदन, कुंभी पाचन, वैतरणी निमज्जनादि क्षेत्रजनित दुःख, रोगजनित दुःख, असुरों द्वारा दिये गये दुःख, परस्पर नारकियों द्वारा दिये गये दुःख, मानसिक दुःख असंख्यात कालपर्यंत निरन्तर भोगे हैं । वहाँ नेत्रों के टिमकार मात्र काल के लिये भी दुःख का अभाव नहीं और आयु पूर्ण हुए बिना मरण नहीं, तिल-तिल बराबर शरीर के खण्ड-खण्ड होने से पारा के समान बिखरकर फिर मिल जाते हैं । अधिक कहने से क्या? नरक के दुःखों को करोड़ों जीभों से असंख्यात काल पर्यंत कहने में भी कोई समर्थ नहीं, भगवान ज्ञानी ही जानते हैं । इस प्रकार चार गतियों में अनंतानंत काल तक दुःख भोगे तो अब कर्माेदयजनित वेदना में क्या विषाद करना? विषाद करने पर भी कर्म छोड़ने वाले नहीं, इसलिए अब कर्मजनित दुःखों को नाश करने में समर्थ ऐसा एक उज्ज्वल/पवित्र रत्नत्रय धर्म ही निर्विघ्न अतीचार रहित मुझे प्राप्त हो । अनंत पर्याय धारण की, उन पर्यायों का विनाश अवश्य होगा ही, वह तो प्रति समय विनशती ही है, उनमें मेरा कुछ भी नहीं है । वह तो पुद्गल द्रव्य की कार्य निमित्तक पर्याय है, इसलिए अनंतानंत काल में जो मेरा स्वरूप है, उसे नहीं जाना था । वह श्रीगुरु के प्रसाद के आश्रय से प्राप्त किया, सो अब मेरा निजस्वरूप जो शुद्धज्ञान वह मिथ्यात्व, राग, द्वेष से मलिन मत होओ । इस प्रकार भयरहित निजस्वरूप का अवलंबन करना, यही सत्त्वभावना है ।
सदासुखदासजी