+ जैसे अशुभ अंगोपांग नामकर्म मुख को विरूप करता है, वैसे ही कषाय मुख को विरूप - -
जावंति केइ संगा उदीरया होंति रागदोसाणं ।
ते वज्जंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो॥269॥
जितने परिग्रह से अन्तर में होते राग-द्वेष उत्पन्न ।
उनका त्यागी अपरिग्रहि मुनि राग-द्वेष का करता अन्त॥269॥
अन्वयार्थ : जितना भी परिग्रह है वह राग-द्वेष को उत्पन्न कराने वाला है । उन परिग्रहों का वर्जन/त्याग करने वाले पुरुष निस्संग होकर राग-द्वेष को जीतते ही हैं ।

  सदासुखदासजी