नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किंचिद्दृशो-
र्दृश्यं यस्य न कर्णयो: किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न ।
तेनालंबितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टी रह:।
संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिन: ॥2॥
रहा न किञ्चित् कार्य अत: हैं, आलम्बित द्वय हाथ अहो! ।
जानन-देखन योग्य नहीं हैं, अत: दृष्टि-नासाग्र अहो! ॥
सुनने योग्य रहा कुछ भी नहिं, इसीलिए रहते एकान्त ।
ध्यान-लीन अत्यन्त निराकुल, जिनवर हैं जग में जयवन्त ॥
अन्वयार्थ : भगवान को हाथ से करने योग्य कोई कार्य नहीं रहा है इसलिये तो उन्होंने हाथों को नीचे लटका दिया है तथा जाने के लायक कोई स्थान नहीं रहा है इसलिये वे निश्चल खड़े हुवे हैं और देखने योग्य कोई पदार्थ नहीं रहा है इसलिये भगवान नाक के ऊपर अपनी दृष्टि दे रखी है तथा एकान्तवास इसलिये किया है कि भगवान को पास में रहकर कोई बात सुनने के लिये नहीं रही है इसलिये इस प्रकार अत्यंत निराकुल तथा ध्यानरस में लीन भगवान सदा लोक में जयवन्त हैं।