रागो यस्य न विद्यते क्कचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात्
अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्द्वैषोऽपि संभाव्यते
तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणा-
मानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः ॥3॥
मोह परिग्रह नष्ट हुआ है, अत: किसी से राग नहीं ।
शस्त्र नहीं हैं अत: न उनमें, नहीं देखते द्वेष कहीं ॥
इसीलिए हैं साम्यस्वभावी, आतमज्ञानी कर्मजयी ।
आनन्दादि गुणाें के आश्रय, रक्षा करो प्रभो मेरी ॥
अन्वयार्थ : मोह तथा परिग्रह के नाश हो जाने के कारण न तो किसी पदार्थ में जिस अर्हंत का राग ही प्रतीत होता है तथा अर्हंत भगवान ने समस्त शस्त्र आदि को छोड़ दिया है इसलिये विद्वानों को किसी में जिस अर्हंत का द्वेष भी देखने में नहीं आता तथा द्वेष के न रहने के कारण जो शान्तस्वभावी है तथा शान्तस्वभावी होने के ही कारण जिस अर्हंत ने अपनी आत्मा को जान लिया है तथा आत्मा का ज्ञाता होने के कारण जो अर्हंत कर्मोंकर रहित है तथा कर्मों से रहित होने के ही कारण जो आनन्द आदिगुणों का आश्रय है ऐसा अर्हंत भगवान मेरी सदा रक्षा करो अर्थात् ऐसे अर्हंत भगवान का मैं सदा सेवक हूं।