+ निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का स्वरूप -
(स्रग्धरा)
दृष्टिनिर्णीतिरात्माह्वयविशदमहस्यत्र बोधः प्रबोधः;
शुद्धं चारित्रमत्र, स्थितिरिति युगपद् बन्धविध्वंसकारि ।
बाह्यं बाह्यार्थेव, त्रितयमपि परं, स्याच्छुभो वाऽशुभो वा;
बन्धः संसारमेवं, श्रुतिनिपुणधियः, साधवस्तं वदन्ति ॥81॥
आत्मतेज-रुचि सम्यग्दर्शन, उसे जानना सम्यग्ज्ञान ।
आत्मलीनता सम्यक्चारित्र, नष्ट करे कर्मों का बन्ध ॥
रत्नत्रय से भिन्न सभी हैं, भाव शुभाशुभ उससे बाह्य ।
बन्ध चतुर्गति के कारण ये, कहें साधु श्रुत-विज्ञ महान् ॥
अन्वयार्थ : आत्मारूपी निर्मल तेज में निश्चय (विश्वास) करना तो निश्चय सम्यग्दर्शन है; उसी तेज का जानपना निश्चय सम्यग्ज्ञान है तथा सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान के साथ स्वरूप में स्थिर रहना सम्यक्चारित्र है । इन तीनों की एकता कर्मबन्ध का नाश करने वाली है । इस निश्चय रत्नत्रय से जो बाह्य है, सो बाह्य ही है । वह चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ हो, बन्ध का ही कारण है । बन्ध का कारण होने से संसार का ही कारण है - ऐसा श्रुतज्ञान के पारंगत आचार्य कहते हैं । इसलिए भव्य जीवों को निश्चय रत्नत्रय के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए । व्यवहार रत्नत्रय को भी सर्वथा न छोड़ कर निश्चय रत्नत्रय का साधक समझना चाहिए ।