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निरूप्य तत्त्वं, स्थिरतामुपागता;
मतिः सतां शुद्धनयावलम्बिनी ।
अखण्डमेकं, विशदं चिदात्मकं;
निरन्तरं पश्यति तत्परं महः ॥80॥
शुद्धनयाश्रित साधुमति है, संवरतत्त्व निरूपण में ।
एक अखण्ड विशद चिन्मय, उत्कृष्ट ज्योति को नित निरखें ॥
अन्वयार्थ : जीवाजीवादि समस्त तत्त्वों को देख कर, जिन सज्जनों की मति स्थिर और शुद्धनय का आश्रय करने वाली हो गई है; वे ही मनुष्य, निर्मल तथा उत्कृष्ट चित्स्वरूप ज्योति को देखते हैं ।