+ यतिधर्म का तीव्र विघातक, क्रोध -
(वसन्ततिलका)
श्रामण्यपुण्यतरुरुच्चगुणौघशाखा-;
पत्रप्रसूननिचितोऽपि फलान्यदत्वा ।
याति क्षयं क्षणत एव घनोग्रकोप-;
दावानलात् त्यजत तं यतयोऽतिदूरम् ॥83॥
गुण-पत्रों-पुष्पों से शोभित यति-तरु नहिं किञ्चित् फल दे ।
क्रोधाग्नि से त्वरित नष्ट हों, अत: यतीश्वर क्रोध तजें ॥
अन्वयार्थ : आचार्य कहते हैं कि गुणरूपी शाख-पत्र-फूलों से सहित यह यतिरूपी वृक्ष है । यदि इसमें भयंकर क्रोधरूपी दावानल प्रवेश कर जावे तो यह किसी प्रकार फल न देकर बात ही बात में नष्ट हो जाता है । इसलिए यतीश्वर, क्रोध आदि को वे दूर से ही छोड़ देते हैं ।