+ राग-द्वेष रहित क्षमाधारी मुनियों के विचार -
(शार्दूलविक्रीडित)
तिष्ठामो वयमुज्ज्वलेन मनसा, रागादिदोषोज्झिताः;
लोकः किञ्चिदपि स्वकीयहृदये, स्वेच्छाचरो मन्यताम् ।
साध्या शुद्धिरिहात्मनः शमवतामत्रापरेण द्विषा;
मित्रेणापि किमु स्वचेष्टितफलं, स्वार्थ: स्वयं लप्स्यते ॥84॥
स्वेच्छाचारी लोक हमें, चाहे जैसा माने मन में ।
किन्तु राग-द्वेषादि रहित हम, अपना निर्मल चित्त रखें ॥
राग-द्वेष परिणामों का फल, सबको मिलता अपने आप ।
प्रशमभावयुत मुनिजन को बस! आत्मशुद्धि ही होती साध्य ॥
अन्वयार्थ : राग-द्वेषादि से रहित होकर हम तो अपने उज्ज्वल चित्त से रहेंगे । स्वेच्छाचारी यह लोक, अपने हृदय में चाहे हमको भला-बुरा कैसा भी मानो क्योंकि शमी पुरुषों को अपने आत्मा की शुद्धि करनी चाहिए । इस लोक में वैरी अथवा मित्रों से हमको क्या है? अर्थात् वे हमारा कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि जो हमारे साथ द्वेषरूप तथा प्रीतिरूप परिणाम करेगा, उसका फल उसको अपने आप मिल जाएगा ।