
दत्ताऽऽनन्दमपार-संसृति-पथ-श्रान्त-श्रमच्छेदकृत्;
प्रायो दुर्लभमत्र कर्णपुटकै:, भव्यात्मभिः पीयताम् ।
निर्यातं मुनि-पद्मनन्दि-वदन,-प्रालेय-रश्मेः परं;
स्तोकं यद्यपि सारताऽधिकमिदं, धर्मोपदेशाऽमृतम् ॥198॥
संसृति-पथ के श्रम को हर कर, जो परमानन्द देता है ।
प्राय: जग में दुर्लभ है, पर कानों से भवि पीता है ॥
पद्मनन्दि मुनि चन्द्र-वदन से, यह उपदेशामृत झरता ।
थोड़े में यह कहा गया पर, अधिक सार है भरा हुआ ॥
अन्वयार्थ : जो धर्मोपदेशरूपी अमृत, उत्तम आनन्द को देने वाला है, जो संसाररूपी अपार मार्ग में थके हुए प्राणी की थकावट को दूर करने वाला है, पुण्यहीन पुरुषों को अत्यन्त दुर्लभ है, जो पद्मनन्दि मुनि के मुख-चन्द्र से निकला हुआ है । यद्यपि वह धर्मोपदेशामृत, शब्दों से थोड़ा वर्णन किया गया है तो भी सार में अधिक है; इसलिए यह धर्मोपदेशामृत भव्यों को अवश्य पीना चाहिए ।