
यत्पाद-पंकज-रजोभिरपि प्रणामात्;
लग्नैः शिरस्यमल-बोध-कलाऽवतारः ।
भव्याऽत्मनां भवति तत्क्षणमेव मोक्षं;
स श्रीगुरुर्दिशतु मे मुनिवीरनन्दी ॥197॥
जिनकी पद-पंकज-रज मस्तक, पर लगने से भविजन को ।
तत्क्षण शिवफल मिलता है, वन्दन हो वीरनन्दि गुरु को ॥
अन्वयार्थ : जिन वीरनन्दि गुरु को प्रणाम करते हुए, मस्तक में लगाए हुए चरण-कमलों की रजों से ही भव्य जीवों को बात ही बात में निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है - ऐसे वे मेरे गुरु श्री वीरनन्दि मुनि, मुझे मोक्ष देवें ।