
कलावेकः साधुर्भवति कथमप्यत्र भुवने
स चाघ्रातः क्षुद्रैः कथमकरुणैर्जीवति चिरम् ।
अतिग्रीष्मे शुष्यत्सरसि विचरच्चञ्चुचरतां
बकोटानामाग्रे तरलशफ री गच्छति कियत् ॥36॥
कलिकाल में इस दुनिया में, कहीं कोई साधु होता ।
वह भी दुष्टों के आघातों से, चिरजीवी नहिं होता ॥
ग्रीष्म ऋतु में सूखे सर में, चोंच हिलाते बगुलों से ।
चञ्चल मछली कहाँ जाए वह, कैसे बच सकती उनसे? ॥