
स्वं शुद्धं प्रविहाय चिद्गुणमयं भ्रान्त्याणुमात्रेऽपि यत्
संबन्धाय मतिः परे भवति तद्बन्धाय मूढात्मनः ।
तस्मात्त्याज्यमशेषमेव महतामेतच्छरीरादिकं
तत्कालादिविनादियुक्ति त इदं तत्त्यागकर्म व्रतम् ॥39॥
शुद्ध चिदानन्दमय स्वरूप तज, अणुमात्र पर में निज-भ्रान्ति ।
मूढ़जनों की इस कुबुद्धि से, होता मात्र कर्म का बन्ध ॥
इसीलिए देहादि समस्त पदार्थों में ममता है त्याज्य ।
आयुकर्म वश देह रहे तो भी, मुनि होना तन का त्याग ॥