(शार्दूलविक्रीडित)
मुक्त्वा मूलगुणान् यतेर्विदधतः शेषेषु यत्नं परं
दण्डो मूलहरो भवत्यविरतं पूजादिकं वाञ्छतः ।
एकं प्राप्तमरेः प्रहारमतुलं हित्वा शिरच्छेदकं
रक्षत्यङ्गुलिकोटिखण्डनकरं को ऽन्यो रणे बुद्धिमान् ॥40॥
मूलगुणों को छोड़ यत्न करता उत्तरगुण-पालन में ।
पूजादिक वाञ्छक को देते, दण्ड मूलगुण-छेदन में ॥
कौन सुधी रण में शिर-छेदक, के प्रहार से नहीं बचे? ।
अंगुलि-छेदक अल्पप्रहार से, रक्षा करना वह चाहे? ॥