भावार्थ :
यहां प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता श्री गुणभद्राचार्य ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान जिनेंद्र का स्मरण करके उस आत्मानुशासन ग्रन्थ के रचने की प्रतिज्ञा की है जो भव्य जीवोंको आत्मा के यथार्थ स्वरूप की शिक्षा देकर उन्हें मोक्ष की प्राप्ति करा सके । यहां श्लोकमें मंगलस्वरूप से जिस 'वीर' शब्द का प्रयोग किया गया है उससे अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान जिनेंद्र का तो स्पष्टतया बोध होता ही है, साथ ही उससे समस्त तीर्थंकर समूह का भी बोध होता है। यथा--' विशिष्टाम् ई राति इति वीरः, तं वीरम् ' इस निरुक्ति के अनुसार यहां वीर ( वि-ई-र ) पद में स्थित 'वि' उपसर्ग का अर्थ 'विशिष्ट' है, ई शब्द का अर्थ है लक्ष्मी, तथा र का अर्थ देनेवाला है। इस प्रकार समदायरूप में उसका यह अर्थ होता है कि जो विशिष्ट अर्थात् अन्य में न पायी जाने वाली समवसरणादिरूप बाह्य एवं अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरंग लक्ष्मीको देने वाला है वह वीर कहा जाता है । इस प्रकार चूंकि अन्तरंग और बहिरंग दोनों ही प्रकार को लक्ष्मी से सम्पन्न सब ही तीर्थंकर अपने दिव्य उपदेश के द्वारा भव्य जीवों के लिये विशिष्ट लक्ष्मी के देने में समर्थ होते हैं अतएव वीर शब्द से यहां उन सबका ही ग्रहण हो जाता है । इस प्रकार मंगलरूप में श्री वर्धमान जिनेन्द्र अथवा समस्त ही तीर्थंकर समुदाय का ध्यान करके ग्रन्थकर्ता ने इस ग्रन्थ के रचने का यह प्रयोजन भी प्रगट कर दिया है कि चूंकि सब ही प्राणी सुख को चाहते हैं और दुख से डरते हैं अतएव मैं उन भव्य जीवों के लिये इस ग्रन्थ के द्वारा उस आत्मतत्त्व की शिक्षा दूंगा कि जिसके निमित्त से वे जन्ममरण के असह्य दुख से छूटकर अविनश्वर एवं निर्बाध सुख को प्राप्त कर सकेंगे ॥१॥ |