दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् ।
दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥२॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन् ! तू दुख से अत्यन्त डरता है और सुख की इच्छा करता है, इसलिये मैं भी तेरे लिये अभीष्ट उसी तत्त्व का प्रतिपादन करता हूं जो कि तेरे दुःख को नष्ट करके सुख को करनेवाला है ॥२॥
Meaning : O soul! As you are extremely scared of misery and long for happiness, therefore, I will expound that cherished reality which results in your happiness after destroying misery.
भावार्थ