+ विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ़ सम्यक्त्व का स्वरूप -
यः श्रुत्वा द्वादशाङगी कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तार दृष्टिम्
संजातार्थात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टि:।
दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा
कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ॥१४॥
अन्वयार्थ : जो भव्य जीव बारह अंगोंको सुनकर तत्त्वश्रद्धानी हो जाता है उसे विस्तार सम्यग्दर्शन से युक्त जानो, अर्थात् द्वादशांग के सुनने से जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे विस्तारसम्यग्दर्शन कहते हैं। अंगबाह्य आगमों के पढने के बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से जो अर्थश्रद्धान होता है अर्थसम्यग्दर्शन कहलाता है। अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञान के द्वारा देखे गये पदार्थों के विषय में रुचि होती है वह यहां परमावगाढसम्यग्दर्शन इस नाम से प्रसिद्ध है ॥१४॥
Meaning : When right faith (samyagdarśana) arises in a potential soul by listening to all the twelve departments (dvādaśāńga) of the Scripture (āgama), it is called vistārasamudbhava. When right faith (samyagdarśana) arises in a potential soul due to an object, it being the instrumental (nimitta) cause, detailed in the ańgabāhya*, without reading the Scripture itself, it is called arthasamudbhava. When right faith (samyagdarśana) arises in a potential soul due to the study of the Scripture (āgama, dravyaśruta) – the twelve departments (dvādaśāńga) and the fourteen miscellaneous concepts called the ańgabāhya – it is called the avagāçha @ samyagdarśana . When right faith (samyagdarśana) gets to the level of complete faith in substances as seen in perfect and direct knowledge – omniscience – it is called # the paramāvagāçha samyagdarśana .

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- श्लोक 12, 13 और 14 में सम्यग्दर्शन के जिन दस भेदों का स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है वे प्रायः उत्तरोत्तर विकास को प्राप्त हुए हैं। यथा- प्रथम आज्ञासम्यक्त्व में जीव शास्त्राभ्यास के बिना केवल सर्वज्ञ वीतराग देव की आज्ञा पर ही विश्वास करता है। उसे यह निश्चल श्रद्धान होता है कि जिनेन्द्र देव चूंकि सर्वज्ञ और वीतराग (राग-द्वेषरहित) हैं अतएव वे अन्यथा उपदेश नहीं दे सकते हैं, उन्होंने जो तत्त्व का स्वरूप बतलाया है वह सर्वथा ठीक है। दूसरे मार्गसम्यग्दर्शन में भी जीव के आगम का अभ्यास नहीं होता । वह केवल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग को कल्याणकारी समझकर उस पर श्रद्धान करता है। तीसरे उपदेशसम्यग्दर्शन में प्राणी प्रथमानुयोग में वर्णित तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण एवं बलभद्र आदि महापुरुषों के चारित्र को सुनकर और उससे पुण्य-पाप के फल को विचारकर तत्त्वश्रद्धान करता है। चौथे सूत्रसम्यग्दर्शन में जीव चरणानुयोग में वर्णित मुनियों के चारित्र को सुनकर तत्त्वरूचि को उत्पन्न करता है । पांचवें बीजसम्यग्दर्शन में करणानुयोग से सम्बद्ध गणित आदि की प्रधानता से वर्णित जिन दुर्गम तत्त्वों का ज्ञान सर्वसाधारण के लिये दुर्लभ होता है उसे जीव किन्हीं बीजपदों के निमित्त से प्राप्त करके तत्त्वश्रद्धान करता है । छठे संक्षेपसम्यग्दर्शन में द्रव्यानुयोग में तर्क को प्रधानता से वर्णित जीवा-जीवादि पदार्थों को संक्षेप से जानकर प्राणी तत्त्वरुचि को प्राप्त होता है। सातवे विस्तारसम्यग्दर्शन में जीव द्वादशांगश्रुत को सुनकर तत्त्वश्रद्धानी बनता है। आठवें अर्थसम्यग्दर्शन में विशिष्ट क्षयोपशम से सम्पन्न जीव श्रुत के सुनने के बिना ही उसमें प्ररूपित किसी अर्थविशेष से तत्वश्रद्धानी होता है। नौवें अवगाढसम्यग्दर्शन में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य दोनों ही प्रकार के श्रुत को ज्ञात करके जीव दृढश्रद्धानी बनता है। यह सम्यग्दर्शन श्रुतकेवली के होता है। अन्तिम परमावगाढसम्यग्दर्शन सचराचर विश्व को प्रत्यक्ष देखनेवाले केवली भगवान के होता है॥१४॥