+ विषय सुख भोगते हुए भी धर्मोपार्जन सम्भव है -
कर्तृत्वहेतुकर्तृत्वानुमतेः स्मरणचरणवचनेषु ।
यः सर्वथाभिगम्यः स कथं धर्मो न संग्राह्यः ॥२५॥
अन्वयार्थ : जो धर्म मन से स्मरण, शरीर के द्वारा आचरण तथा वचनकृत उपदेश को विषय करनेवाले कर्तृत्व (कृत), हेतुकर्तृत्व (प्रेरणा-कारित) और अनुमोदन के द्वारा सब प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है उस धर्म का संग्रह कैसे नहीं करना चाहिये ? अर्थात् सब प्रकारसे उसका संग्रह अवश्य करना चाहिये॥२५॥
Meaning : The dharma can be pursued through the mind (mana), the body (kāya) and the speech (vacana), and, in each case, by doing (kÃta), causing it done (kārita) and approval (anumodana); why should such dharma not be amassed?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जो भी शुभ अथवा अशुभ कार्य स्वयं किया जाता है वह कृत, जो दूसरों के द्वारा प्रेरणापूर्वक कराया जाता है वह कारित, तथा दूसरों के द्वारा किये जाने पर जिसकी स्वयं प्रशंसा की जाती है वह अनुमत कहा जाता है। ये तीनों ही मन, वचन और काय से सम्बन्ध रखते हैं। यथा- मनकृत, मनकारित, मनानुमत, वचनकृत वचनकारित, वचनानुमत, कायकृत, कायकारित और कायानुमत । इस तरह चूंकि इन नौ प्रकारों से सुखप्रद धर्म का संग्रह भले प्रकार किया जा सकता है अतएव सुखाभिलाषी प्राणियों को उक्त प्रकार से उस धर्म का संग्रह करना चाहिये, यही उपदेश यहां दिया गया है ॥२५॥