+ धर्म संचय न करनेवालों की निन्‍दा -
कृत्वा धर्मविघातं विषयसुखान्यनुभवन्ति ये मोहात् ।
आच्छिद्य तरून् मूलात् फलानि गृण्हन्ति ते पापाः॥२४॥
अन्वयार्थ : जो प्राणी अज्ञानता से धर्म को नष्ट करके विषयसुखों का अनुभव करते हैं वे पापी वृक्षों को जड से उखाडकर फलों को ग्रहण करना चाहते हैं ॥२४॥
Meaning : The men who, out of delusion (moha), wipe out dharma while indulging in sense-pleasures are like those vicious men who uproot the tree for the sake of fruits.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार उत्तम फलों को चाहनेवाला मनुष्य उन फलों को उत्पन्न करने वाले वृक्षों को जड-मूल से उखाडकर कभी उन अभीष्ट फलों को नहीं प्राप्त कर सकता है उसी प्रकार विषयसुख की अभिलाषा करने वाले प्राणी भी उस सुख के कारणभूत धर्म को नष्ट करके कभी उक्त विषयसुख को नहीं प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये यदि विषयसुख की अभिलाषा है तो उसके कारणभूत धर्म का रक्षण अवश्य करना चाहिये ॥२४॥