भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार स्वाद के निमित्त परिमित मिष्टान्न आदि के खाने से कभी अजीर्ण नहीं होता, किन्तु वह जिह्वालम्पट होकर उसे अधिक प्रमाण में खाने पर ही- होता है; उसी प्रकार विषयसुख के अनुभव मात्र से कुछ पाप नहीं होता, किन्तु वह उस सुख की प्राप्ति के निमित्त अन्याय आचरण करने से- जैसे प्राणिहत्या, असत्यभाषण, चोरी, परस्त्री या वेश्या का सेवन अथवा अत्यासक्ति से स्वस्त्री का भी सेवन और तृष्णा की अधिकता आदि से- होता है। यदि प्राणी पूर्वकृत धर्म के प्रभाव से प्राप्त हुई सामग्री में ही सन्तोष रखकर धर्म का घात न करता हुआ अनासक्तिपूर्वक उस विषयसुख का अनुभव करता है तो इससे वह पाप से विशेष लिप्त नहीं होता है । इसके लिये असाधारण वैभव का उपभोग करने वाले भरत चक्रवर्ती आदि के उदाहरण भी पुराणों में देखे ही जाते हैं । यही तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के आचरण में भेद है । कारण कि चारित्रमोह के उदय से इन्द्रिजन्य सुख के भोगने में वे दोनों ही समानरूप से प्रवृत्त होते हैं, फिर भी विशेषता उनमें यही है कि एक (सम्यग्दृष्टि) तो हेय-उपादेय के विवेकपूर्वक उसमें अनासक्ति से प्रवृत्त होता है जब कि दूसरा उक्त विवेक को छोडकर अत्यासक्ति के साथ ही उसमें प्रवृत्त होता है। इसलिए यह नहीं समझना चाहिये कि विषयसुख का अनुभव करते हुए प्राणी के केवल पाप ही होता है और धर्म नहीं होता ॥२७॥ |