भावार्थ :
विशेषार्थ- सुख और दुख वास्तव में अपने मन की कल्पना के ऊपर निर्भर हैं। इस कल्पना के अनुसार प्राणी जिन पदार्थों को इष्ट समझता है उनकी प्राप्ति में वह सुख तथा उनकी अप्राप्ति में दुख का अनुभव करता है। उसी प्रकार जिन पदार्थों को उसने अनिष्ट समझ रक्खा है उनके संयोग में वह दुखी तथा वियोग में सुखी होता है । परन्तु यथार्थ में यदि विचार किया जाय तो कोई भी वस्तु न तो सर्वथा इष्ट है और न सर्वथा अनिष्ट भी। उदाहरण के रूप में एक ही समय में जहाँ किसी एक के घर पर इष्ट सम्बन्धी का मरण होता है वहीं दूसरे के घर पर पुत्रविवाहादि का उत्सव भी संपन्न होता है। अब जिसके यहां इष्टवियोग हुआ है वह उस एक ही मुहूर्त को अनिष्ट कहकर रुदन करता है और दूसरा उसे ही शुभ घडी मानकर अतिशय आनन्द का अनुभव करता है । इससे निश्चित प्रतीत होता है कि जिस प्रकार वह घडी (मुहूर्त) वास्तव में इष्ट और अनिष्ट नहीं है उसी प्रकार कोई भी बाह्य पदार्थ स्वरूप से इष्ट और अनिष्ट नहीं हो सकता है । उन्हें केवल कल्पना से ही प्राणी इष्ट व अनिष्ट समझने लगते हैं। प्रकृत में जिन शिकार आदि दुष्कृत्यों में प्रत्यक्ष में ही प्राणिवियोगादिजन्य दुख देखा जाता है उनके सम्पन्न होने पर शिकारी जन सुख की कल्पना करते हैं। पर भला विचार तो कीजिये कि दूसरे दीन प्राणियों को कष्ट पहुंचाने वाले वे कार्य क्या यथार्थ में सुख कारक हो सकते हैं ? नहीं हो सकते। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि जब सुख और दुख कल्पना के ऊपर ही निर्भर हैं तब विवेकी जन को उभय लोकों में कष्ट देने वाले उन प्राणिवधादिरूप दुष्कार्यों में सुख की कल्पना न करके जो अहिंसा एवं सत्य संभाषणादि उत्तम कार्य उभय लोकों में सुखदायक हैं तथा जिनकी सबके द्वारा प्रशंसा की जाती है उनमें ही सुख की कल्पना करके प्रवृत्त होना चाहिये ॥२८॥ |