+ शिकारादि कार्य प्रत्यक्ष दुःख के कारण -
अप्येतन्मृगयादिकं यदि तव प्रत्यक्षदुःखास्पदं
पापराचरितं पुरातिमयदं सौख्याय संकल्पतः ।
संकल्पं तमनुज्झितेन्द्रियसुखैरासेविते धीधनै:
धर्म्ये कर्मणि किं करोति न भवाँल्लोकद्वयश्रेयसि॥२८॥
अन्वयार्थ : हे भव्य जीव ! जो शिकार आदि व्यसन प्रत्यक्ष में ही दुख के स्थानभूत हैं, जिनमें पापी जीव ही प्रवृत्त होते हैं, तथा जो परभव में दुखदायक होने से अतिशय भयानक हैं; वे भी यदि संकल्प मात्र से तेरे सुख के लिये हो सकते हैं तो फिर विवेकी जन इन्द्रियसुख को न छोडकर जिस धर्मयुक्त आचरण को करते हैं तथा जो दोनों ही लोकों में कल्याणकारक है उस धर्ममय आचरण में तू उक्त संकल्प को क्यों नहीं करता है ? अर्थात् उसमें ही तुझे सुख की कल्पना करना चाहिये ॥२८॥
Meaning : O worthy soul! Evil-passions (vyasana), like hunting, are evidently abodes of misery; only the sinners indulge in these, and, being the cause of misery in future lives, these are excessively frightful. Even these, just by mentalresolve (imagination), may appear to be your sources of enjoyment. Men of discrimination engage, without leaving sensual enjoyment, in laudable conduct that brings propitiousness in this world and the next. Why should you not take a mental-resolve to adopt such laudable conduct? (You should imagine that happiness resides only in laudable conduct.)

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- सुख और दुख वास्तव में अपने मन की कल्पना के ऊपर निर्भर हैं। इस कल्पना के अनुसार प्राणी जिन पदार्थों को इष्ट समझता है उनकी प्राप्ति में वह सुख तथा उनकी अप्राप्ति में दुख का अनुभव करता है। उसी प्रकार जिन पदार्थों को उसने अनिष्ट समझ रक्खा है उनके संयोग में वह दुखी तथा वियोग में सुखी होता है । परन्तु यथार्थ में यदि विचार किया जाय तो कोई भी वस्तु न तो सर्वथा इष्ट है और न सर्वथा अनिष्ट भी। उदाहरण के रूप में एक ही समय में जहाँ किसी एक के घर पर इष्ट सम्बन्धी का मरण होता है वहीं दूसरे के घर पर पुत्रविवाहादि का उत्सव भी संपन्न होता है। अब जिसके यहां इष्टवियोग हुआ है वह उस एक ही मुहूर्त को अनिष्ट कहकर रुदन करता है और दूसरा उसे ही शुभ घडी मानकर अतिशय आनन्द का अनुभव करता है । इससे निश्चित प्रतीत होता है कि जिस प्रकार वह घडी (मुहूर्त) वास्तव में इष्ट और अनिष्ट नहीं है उसी प्रकार कोई भी बाह्य पदार्थ स्वरूप से इष्ट और अनिष्ट नहीं हो सकता है । उन्हें केवल कल्पना से ही प्राणी इष्ट व अनिष्ट समझने लगते हैं। प्रकृत में जिन शिकार आदि दुष्कृत्यों में प्रत्यक्ष में ही प्राणिवियोगादिजन्य दुख देखा जाता है उनके सम्पन्न होने पर शिकारी जन सुख की कल्पना करते हैं। पर भला विचार तो कीजिये कि दूसरे दीन प्राणियों को कष्ट पहुंचाने वाले वे कार्य क्या यथार्थ में सुख कारक हो सकते हैं ? नहीं हो सकते। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि जब सुख और दुख कल्पना के ऊपर ही निर्भर हैं तब विवेकी जन को उभय लोकों में कष्ट देने वाले उन प्राणिवधादिरूप दुष्कार्यों में सुख की कल्पना न करके जो अहिंसा एवं सत्य संभाषणादि उत्तम कार्य उभय लोकों में सुखदायक हैं तथा जिनकी सबके द्वारा प्रशंसा की जाती है उनमें ही सुख की कल्पना करके प्रवृत्त होना चाहिये ॥२८॥