+ तृष्णा की विकरालता -
अनिवृत्तेर्जगत्सर्वं मुखादवशिनष्टि यत् ।
तत्तस्याशक्तितो भोक्तुं वितनोर्भानुसोमवत् ॥३९॥
अन्वयार्थ : तृष्णा की निवृत्ति से रहित अर्थात् अधिक तृष्णा से युक्त होकर भी तेरे मुख से जो सब जगत् अवशिष्ट बचा है वह तेरी भोगने की शक्ति न रहने से ही शेष रहा है। जैसे- राहु के मुख से शेष रहे सूर्य और चंद्र ॥३९॥
Meaning : In spite of your limitless craving, the sense-objects have escaped your mouth and remained in this world; this is due to the lack of your strength. It is akin to the parts of the sun and the moon that remain uncovered from the mouth of Rāhu*!

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार यद्यपि राहु सूर्य और चन्द्र को पूर्ण ग्रास ही करना चाहता है, फिर भी जो उनका भाग शेष बचा रहता है वह उसकी अशक्ति के कारण ही बचा रहता है,उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी की तृष्णा तो इतनी अधिक होती है कि वह समस्त जगत को ही स्वाधीन करना चाहता है,फिर भी जो समस्त जगत उसके स्वाधीन नहीं हो पाता है उसमें उसकी अशक्ति कारण है, न कि विषय-तृष्णा की न्यूनता॥३९॥