साम्राज्यं कथमप्यवाप्य सुचिरात्संसारसारं पुनः
तत्यक्त्वैव यदि क्षितीश्वरवराः प्राप्ताः श्रियं शाश्वतीम् ।
त्वं प्रागेव परिग्रहान् परिहर त्याज्यान गृहीत्वापि ते
मा भूभौतिकमोदकव्यतिकरं संपाद्य हास्यास्पदम् ॥४०॥
अन्वयार्थ : जिस किसी प्रकार से संसार के सारभूत साम्राज्य को चिरकाल में प्राप्त करके भी यदि चक्रवर्ती उसे छोडने के पश्चात् ही अविनश्वर मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त हुए हैं तो फिर तुम त्यागने के योग्य उन परिग्रहों को ग्रहण करने के पहिले ही छोड दो । इससे तुम परिव्राजक के लड्डू के समान विषयों का सम्पादन करके हंसी के पात्र न बन सकोगे ॥४०॥
Meaning : Even the ‘king-of-kings’ who attains, after a long time and great effort, lordship over the entire world has to renounce all his grandeur to attain the eternal bliss of liberation. Why not you renounce beforehand the worldly sense-objects? You would thus save yourself from ridicule, as the wanderer saint who had picked up, with the intention of washing it and not to eat, the piece of sweet-food which had fallen in filth.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- संसार में सबसे श्रेष्ठ चक्रवर्ती का साम्राज्य समझा जाता है, परन्तु उसको कष्टपूर्वक प्राप्त करके भी अन्त में मोक्षसुख की इच्छा से उन्हें भी वह छोडना ही पड़ा है। और तो क्या कहा जाय, किन्तु तीर्थंकर भी प्राप्त राज्य लक्ष्मी को छोड देने के पश्चात् ही जगत का कल्याण करने वाली आर्हन्त्य लक्ष्मी और अन्त में मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं । इस प्रकार जब समस्त विषयों का छोडना अनिवार्य है तब सबसे उत्तम तो यही है कि ममत्वबुद्धि को छोडकर उन्हें ग्रहण ही न किया जाय, अन्यथा यदि उन्हें ग्रहण करने के पश्चात् छोडा तो फिर उस साधु के समान हंसी का पात्र बनना पड़ेगा जो भिक्षा में प्राप्त हुए लड्डू के विष्ठा में गिर जाने पर उसे धोने के पश्चात् छोडता है। अभिप्राय यह है कि जो प्राणी तदनुकूल धर्म के आचरण के बिना ही मोहवश विषयों को प्राप्त करने के लिये निष्फल प्रयत्न करते हैं वे लोगों की हंसी के पात्र बनते हैं। अतएव वास्तविक सुख का साधन जो धर्म है उसका ही परिपालन करना योग्य है। इससे ऐहिक एवं परलौकिक सुख की प्राप्ति स्वयमेव होगी ॥४०॥
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